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बिल्ली की माँ / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर

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उठ, चल उठ मीऊँ !
सूरज भी निकला बिल से बाहर
भों ओं ओं ओं...
पों ओं ओं ओं...
किए इशारे दूधवालों ने
भोंगे बजाकर
उठ ! उठ कि अब दुनिया चाय पिएगी
और मेरी मीऊँ दूध पर जीएगी
चल ज़रा झमक कर एक अंगड़ाई तो ले
और मोहल्लेवालों को अपना योगा दिखा
क्यूँ री, तू आजकल दूध-वूध
पीती नहीं क्या
कैसी काली-कलूटी दिखती है
उस आंटी की गुड्डी को देख
कितनी गोरी-गुमटी है
और सुन, दूध पर झपट्टा मारने में
लजाया मत कर
कोई आ जाए तो आँखें दिखा
धमका दिया कर –
“शेर का बच्चा हूँ
बहुत दिनों से नहाया नहीं
इसलिए काला-मैला हूँ
कहो, नहाकर आऊँ
बिल्ली से शेर बन जाऊँ
नहीं न... ! तो फिर जहां हो
वहीं से पीछे घूम जाओ
दूध यहीं बाहर भूल जाओ”
याद है एक बार दूध समझ
चूने की बाल्टी में तूने मुँह डाला था
ये कारनामा तेरा
बड़ा ही भोला भाला था
सुन ! वह सामने जो घर है न
तू वहाँ मत जाया कर
उस घर में एक बच्चा पलता है
उसकी माँ का अभाव मुझे खलता है
दूध की कीमत माँ से बढ़कर कौन जानेगा भला
चल, बस! अब बहुत हुई हिदायतें
जीने की करनी हैं कवायदें
मैं भी चलूँ
लौटते हुए तेरे लिए गद्देदार चूहा लाऊँगी
चल, अब उठ भी जा
मीयूं!!