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बिहारी सतसई / भाग 32 / बिहारी

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उयौ सरद-राका-ससी करति क्यौं न चितु चेतु।
मनौ मदन-छितिपाल कौ छाँहगीरु छबि देतु॥311॥

उयौ = उगा। सरद-राका-ससी = शरद की पूर्णिमा का चन्द्र। मदन = कामदेव। छितिपाल = राजा। छाँहगीरु = छत्र। छबि = शोभा।

शरद ऋतु का पूर्ण चन्द्र उग आया। (फिर भी) चित्त में चेत क्यों नहीं करती-होश में आकर मान क्यों नहीं छोड़ती? (वह चन्द्रमा ऐसा मालूम होता है) मानो मदन-रूपी राजा का छत्र शोभ रहा हो।


निसि अँधियारी नील-पटु पहिरि चली पिय-गेह।
कहौ दुराई क्यौं दुरै दीप-सिखा-सी देह॥312॥

पटु = वस्त्र, साड़ी। गेह = घर। दुराई = छिपाने से। दीप-सिखा = दीप-शिखा = दीये की लौ।

अँधेरी रात में नीली साड़ी पहनकर (गुप्त रूप से मिलने के लिए) प्रीतम के घर को चली, किन्तु कहो तो (उसकी) दीये की लौ के समान (प्रकाशवान) देह छिपाने से कैसे छिपे?

नोट - दोहा सं. 309 के अर्थ से इसके भाव का मिलान कीजिए।


छिपैं छपाकर छिति छुवैं तम ससिहरि न सँभारि।
हँसति हँसति चलि ससिमुखी मुख तैं आँचरु टारि॥313॥

छिपैं = छिप गया। छिपाकर = चन्द्रमा। छिति = पृथ्वी। छुवैं = छू गया। तम = अंधकार। ससिहरि न = सिहर मत, डर मत। सँभारि = सँभलकर। टारि = हटाकर।

चन्द्रमा छिप गया। पृथ्वी को अंधकार छू रहा है। (किन्तु इससे अँधेरा हुआ जानकर) तू डर मत, सँभल जा। अरी चन्द्रमुखी! मुख से घूँघट हटाकर हँसती-हँसती चल (तेरे मुख और दाँतों की चमक से आप ही पथ में उजाला हो जायगा।)

नोट - यह शुक्लाभिसारिका नायिका है। किन्तु कृष्णाभिसारिका नायिका पर कुछ इसी भाव का एक कवित्त द्विजदेव कवि का है। उसके अन्तिम दो चरण देखिए- ”नागरी गुनागरी सु कैसे डरैं रैनि डर जाके अंग सोहैं ये, सहायक अनंद री। वाहन मनोरथ अमा है सँगवारी सखी मैनमद सुभट मसाल मुखचंद री।“


अरी खरी सटपट परी बिधु आधैं मग हेरि।
संग लगे मधुपनु लई भागनु गली अँधेरि॥314॥

खरी = अत्यन्त, अधिक। सटपट परी = सकपकाहट में पड़ गई। मग = रास्ता। हेरि = देखकर। मधुपनु = मधुपों से, मधुपों के कारण। भागनु = भाग्य से। अँधेरि लई = अँधियारी हो गई।

अरी! आधी राह पर चन्द्रमा को देखकर तुम बहुत सकपकाहट में क्यों पड़ गई हो-ज्योंही आधी राह खतम हुई कि चन्द्रोदय देखकर असमंजस में पड़ गई (कि मैं जाऊँ या नहीं, और यदि जाऊँ, तो कैसे जाऊँ, कहीं कोई देख न ले) किन्तु (शरीर की सुगंध के लोभ से) साथ लगे हुए भौंरों के कारण भाग्य से ही गली में अँधियारी छा गई। (जिससे तुम्हें कोई नहीं देख सकेगा।)


जुबति जोन्ह मैं मिलि गई नैंकु न होति लखाइ।
सौंधे कैं डौरैं लगी अली चली सँग जाइ॥315॥

जुबति = जवान स्त्री। जोन्ह = चाँदनी। नैंकु = तनिक। सौंधे = सुगंध। डौरैं लगी = डोर पकड़े, डोरियाई हुई, आश्रय (सहारे) से। अली = सखी।

नवयौवना (नायिका) चाँदनी में मिल गई-उसका प्रकाशवान गौर शरीर चन्द्रमा की उज्ज्वल किरणों में साफ मिल गया-जरा भी नहीं दीख पड़ी! (अतएव, उसकी) सखी सुगंध की डोर पकड़े-उसके शरीर की सुगंध का सहारा लेकर-(पीछे-पीछे) साथ में चली गई।


ज्यौं ज्यौं आवति निकट निसि त्यौं त्यौं खरी उताल।
झमकि झमकि टहलैं करै लगी रहँचटैं बाल॥316॥

निसि = रात। खरी = अत्यन्त, अधिक। उताल = उतावली, जल्दीबाजी। टहलैं = कामकाज। रहँचटैं-लगी = लगन-लगी, प्रेम-पगी।

ज्यों-ज्यों रात निकट आती है-ज्यों-ज्यों दिन बीतता जाता और रात पहुँचती जाती है-त्यों-त्यों अत्यन्त उतावली से वह प्रेम में पगी बाला (प्रियतम के मिलन का समय निकट आता जान) झमक-झमककर (ताबड़तोड़) घर की टहलें करती है।


झुकि-झुकि झपकौंहैं पलनु फिरि-फिरि जुरि जमुहाइ।
बींदि पियागम नींद मिसि दीं सब अली उठाइ॥317॥

झपकौंहैं = झपकती (ऊँघती) हुई। पलनु = पलकों से। जमुहाई = जँभाई (अँगड़ाई) लेकर। बींदि = (संस्कृत ‘बिदु’ = जानना) जानकर। पियागम = प्रीतम का आगमन। मिसि = बहाना।

(उस नायिका ने) प्रीतम के आगमन (का समय) जान झपकती हुई पलकों से झुक-झस्ुककर और बार-बार मुड़ती हुई जँभाई लेकर नींद के बहाने सब सखियों को उठा (जगाकर हटा) दिया (सब सखियाँ उसे ऊँघती हुई जानकर चली गईं)।


अँगुरिन उचि भरु भीति दै उलमि चितै चख लोल।
रुचि सौं दुहूँ दुहूँन के चूमे चारु कपोल॥318॥

उचि = उचककर। भरु = भार। भीति = भीत्ति, दीवार। उलमि = उझक कर। चख = आँख। लोल = चंचल। रुचि = प्रेम। दुहूँन = दोनों। चारु = सुन्दर। कपोल = गाल।

(पैर की) अँगुलियों पर उचक-अँगुलियों पर खड़ी हो दीवार पर शरीर का भार दे और उझककर चंचल आँखों से (इधर-उधर) देखकर दोनों ने प्रेम से दोनों के सुन्दर गालों का (परस्पर) चिुम्बन किया।

नोट- नायिका और नायक के बीच में उन दोनों ने कुछ ऊँची दीवार थी। उस समय उन दोनों ने जिस कौशल से परस्पर चुम्बन किया था, उसी का वर्णन इस दोहे में है।


चाले की बातैं चलीं सुनत सखिनु कैं टोल।
गोऐंहू लोचन हँसत बिहँसत जात कपोल॥319॥

चाले = गौना। बातैं चलीं = चर्चा छिड़ी। टोल = टोली, गोष्ठी, झुंड। गोऐंहू = छिपाने पर भी। लोचन = आँखें। बिहँसत = खिलते।

सखियों की टोली में ‘गौने की बातचीत चल रही है’-यह खबर सुनकर (प्रसन्नता को) छिपाने (की चेष्टा करने) पर भी (प्रीतम के मिलन के उत्साह में नायिका की) आँखें हँसती हैं, और गाली खिलते जाते हैं-यद्यपि लाज के मारे खुलकर नहीं हँसती, तथापित उसकी आँखों में और गालों पर आनन्द का प्रभाव (विकास) स्पष्ट दीख पड़ता है।


मिसि हीं मिसि आतप दुसह दई और बहकाइ।
चले ललन मनभावतिहिं तन की छाँह छिपाइ॥320॥

मिसि = बहाना। आतप = धूप। और = औरों को। दुसह = नहीं सहने योग्य। मनभावतिहिं = चहेती स्त्री के पास। छाँह = छाया।

बहाने-ही-बहाने में (उस) कड़ी धूप में दूसरी (सखियों) को बहका दिया-उस स्थान से हटा दिया। फिर ललन (श्रीकृष्ण) प्यारी (राधिका) को शरीर की छाया में छिपाकर (जिससे उसे धूप न लगे) चल पड़े। (अद्भुत आलिंगन!)