बिहारी सतसई / भाग 68 / बिहारी
सीतलता रु सुबास की घटै न महिमा मूरु।
पीनसवारैं ज्यौं तज्यौ सोरा जानि कपूरु॥671॥
रु = अरु = और। मूरु = मूल्य, मोल। पीनसवारैं = पीनस रोग (नकड़ा) का रोगी, जिसकी घ्राणशक्ति नष्ट हो जाती है, और जिसे सुगंध-दुर्गंध कुछ नहीं जान पड़ती। सोरा = नमक के रूप में एक खारा पदार्थ।
पीनस-रोग वाले ने जैसे कपूर को सोरा जानकर छोड़ दिया, उसे उसकी शीतलता और सुगंध की महिमा और उससे उसकी शीतलता और सुगंध की महिमा और न उसका मोल ही घटा। (कोई मूर्ख यदि गुणी का निरादर करे, तो उससे उस गुणी का गुण नहीं घट जाता और न उसका सम्मान ही कम होता है।)
गहै न नेकौ गुन गरबु हँसौ सकल संसारु।
कुच-उचपद लालच रहै गरैं परैहूँ हारु॥672॥
गुन गरबु = गुण का घमंड। गर परैहूँ = गले पड़ने पर भी (इस मुहाविरे का अर्थ है = ‘बिना इच्छा के ही किसी के पीछे पड़े रहना’)। हार = (1) माला (2) पराजय
अपने गुण का उसे जरा भी घमंड नहीं, सारा संसार उसे (‘हार’-‘हार’ कहकर) हँसता है, तो भी वह ‘हार’ कुच-रूपी ऊँचे पद के लोभ में पड़कर (उस नवयौवना के) गले में पड़ा ही रहता है। (उपहास सहकर भी लोग ऊँचे ओहदे को नहीं छोड़ते।)
मूड़ चढ़ाऐंऊ पर्यौ रहै पीठि कच-भारु।
रहै गरैं परि राखिबौ तऊ हियैं पर हारु॥673॥
मूड़ चढ़ाना = सिर चढ़ाना, अधिक मान करना। कच-भार = केश-कुच्छ, केश-जाल, बालों का समूह। गले पड़ना = देखो 672 वाँ दोहा। हारु = माला।
सिर पर चढ़ाये रखने पर भी केश-गुच्छ पीठ पर ही पड़े रहते हैं-(आदर दिखलाने पर भी नीच का निरादर ही होता है), और यद्यपि गले पड़कर रहती है, तो भी माला हृदय ही पर रक्खी जाती है-(निरादृत होने पर भी सज्जन का सम्मान ही होता है)।
नोट - इस दोहे में बिहारीलाल ने मुहाविरे का अच्छा प्रयोग दिखलाया है। कविवर ‘रसलीन’ भी मुहाविरों के प्रयोग में बड़े कुशल हैं। ‘वेणी’ पर कैसी मुहाविरेदार भाषा में मजमून बाँधा है-
भनत न कैसेहू बनै, या बेनी के दाय!
तुव पीछे जे जगत के पीछे परे बनाय॥
जो सिर धरि महिमा मही लहियति राजा-राइ।
प्रगटत जड़ता अपनियै मुकुट पहिरियतु पाइ॥674॥
महिमा = बड़ाई। मही = भूमंडल (संसर) में जड़ता = मूर्खता।
जिसे सिर पर रखकर बड़े-बड़े राजे-महाराजे संसार में बड़ाई पाते हैं, उसी मुकुट को पाँव में पहनकर (मूर्ख मनुष्य) अपनी जड़ता ही प्रकट करता है। (आदरणीय का तिरस्कार करना ही मूर्खता है।)
चले जाइ ह्याँ को करैं हाथिनु कौ व्यापार।
नहि जानतु इहिं पुर बसैं धोबी ओड़ कुम्हार॥675॥
ह्याँ = यहाँ। पुर = गाँव। ओड़ = बेलदार।
चले जाओ, यहाँ हाथी का व्यापार कौन करता है? नहीं जानते कि इस गाँव में केवल धोबी, बेलदार और कुम्हर बसते हैं (जो गदहे पालते हैं)?
नोट - पश्चिम में कुम्हार और बेलदार भी गदहे पालते हैं।
करि फुलेल कौ आचमन मीठौ कहत सराहि।
रे गंधी मति-अंध तूँ अतर दिखावत काहि॥676॥
फुलेल = फूलों के रस से बना तेल। आचमन करि = पीकर। गंधी = इत्र बेचनेवाला अत्तार। मति अंध = बेवकूफ। अतर = इत्र।
(यहाँ तो) फुलेल का आचमन कर उसे सराहता और मीठा कहता है! रे बेवकूफ इत्रफरोश, तू यहाँ किसको इत्र दिखा रहा है? (वह तो यह भी नहीं जानता कि फुलेल लगाने की चीज है या पीने की, फिर यह इत्र की कद्र क्या जानेगा?)
विषम वृषादित की तृषा जिये मतीरनु सोधि।
अमित अपार अगाध जलु मारौ मूढ़ पयोधि॥677॥
विषम = प्रचंड। वृषादित = (वृषा+आदित्य) वृष-राशि का सूर्य, जो अतिशय प्रचंड होता है; जेठ की तीखी धूप। तृषा = प्यास। मतीरनु = तरबूजों। सोधि = खोजकर। अगाध = अथाह। मारौ = मारवाड़ (राजपुताने की मरुभूमि)। मूढ़ = मूर्ख (यहाँ ‘बेकार’)। पयोधि = समुद्र।
जेठ की कड़ी धूप की प्यास से (व्याकुल होने पर) तरबूजों को खोजकर प्राण बचाया। इस मारवाड़ की मरुभूमि में अत्यन्त विस्तृत और अगाध जल वाला समुद्र किस काम का?-बेकार है।
जम-करि-मुँह तरहरि पर्यौ इहिं धरहरि चित लाउ।
विषय-तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ॥678॥
करि = हाथी। तरहरी = तलहटी, नीचे। हरि = (1) ईश्वर (2) सिंह। तृषा = तृष्णा, वासना। परिहरि = छोड़कर। अजौं = अब भी। नरहरि = नृसिंह भगवान। धरहरि = निश्चय।
यम-रूपी हाथी के मुख के नीचे पड़े हो, यह समझकर निश्चय (सिंह-रूपी) हरि में चित्त लगाओ-और, विषय की तृष्णा छोड़कर अब भी उस नृसिंह के गुण गाओ।
जगतु जनायौ जिहिं सकलु सो हरि जान्यौ नाहिं।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै आँखि न देखी जाहिं॥679॥
जिहिं = जिसने। ज्यौं = जैसे। न देखी जाहिं = नहीं दीख पड़तीं।
जिसने सारे संसर को जनाया-जिसने तुम्हें सारे संसार का ज्ञन दिया, उसी ईश्वर को तुमने नहीं जाना-नहीं पहचाना, (ठीक उसी प्रकार) जिस प्रकार अपनी आँखों से और सब वस्तुएँ तो देखी जाती हैं, पर स्वयं (अपनी ही) आँखें नहीं दीख पडतीं।
जप माला छापैं तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै बृथा साँचै राँचै रामु॥680॥
छापे = राम नाम की छाप, जिसे साधु-सन्त अपने शरीर और वस्त्र में लगाते हैं। सरै = सधता है। कामु = कार्य, मनस्कामना। साँचै = सचाई (सच्ची लगन) से ही। राँचै = रीझते हैं।
जप (मंत्र-पाठ), माला (सुमिरन), छापे या तिलक से एक भी काम नहीं सध सकता-कोई भी मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता। जब मन सच्चा है-मन वश में नहीं है, तो यह सारा नाच (आडम्बर) वृथा है, (क्यांेकि) राम सत्य से ही प्रसन्न होते हैं (आडंबरों से नहीं)।
नोट - ”माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माँहि।
मनुआँ तो दस दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाँहि॥ -- कबीरदास