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बिहारी सतसई / भाग 9 / बिहारी

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अनियारे दीरघ दृगनु कितीं न तरुनि समान।
वह चितबनि औरे कछू जिहिं बस होत सुजान॥81॥

अनियारे = नुकीली। दीरघ = बड़ी। दृगनु = आँखें। जिहिं = जिसके। सुजान = रसिक।

कितनी युवतियों की नुकीली और बड़ी-बड़ी आँखें एक-सी नहीं हैं- बहुत-सी युवतियों की आँखें बड़ी-बड़ी और नुकीली हैं-किन्तु रसिक-जन को वशीभूत करनेवाली वह रसीली नजर कुछ और ही होती है!


चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट-पट झीन।
मानहु सुरसरिता-विमल-जल उछरत जुग मीन॥82॥

घूँघट-पट = घूँघट का कपड़ा। झीन = बारीक, महीन। सुरसरिता = गंगा। जुग = दो। मीन = मछली। उछरत = उछलती है।

बारीक कपड़े के घूँघट की ओट से (उसकी) चंचल आँखें चमक रही हैं- झलक रही हैं, मानों गंगाजी के स्वच्छ जल में दो मछलियाँ उछल रही हैं।


फूले फदकत लै फरी पल कटाच्छ करबार।
करत बचावत बिय नयन पाइक घाइ हजार॥83॥

फूले = उमंग से मरकर। फदकत = पैंतरें बदलते हैं। फरी = ढाल। पल = पलक। करबार = फरबाल = तलवार। बिय = दोनों। पाइक = पैदल सिपाही। घाइ = घाव, धार।

(उसके) दोनों नेत्र-रूपी सिपाही पलक-रूपी ढाल और कटाक्ष-रूपी तलवार लेकर सानन्द पैंतरे बदलते तथा हजारों वार करते और बचाते हैं।


जदपि चबाइनु चीकनी चलति चहूँ दिसि सैन।
तऊ न छाड़त दुहुन के हँसी रसीले नैन॥84॥

चबाइनु चीकनी = निंदा से भरी। तऊ = तो भी। सैन = इशारे। हँसी = उमंग भरी छेड़छाड़।

यद्यपि उसपर चारों ओर से निंदा-भरे इशारे चल रहे हैं- लोग इशारे कर-करके उसकी निंदा कर रहे हैं-तो भी दोनों की रसीली आँखें हँसी (चुहलबाजी) नहीं छोड़तीं।


जटित नीलमनि जगभगति सींक सुहाई नाँक।
मनौ अली चंपक-कली बसि रसु-लेतु निसाँक॥85॥

जटित = जड़ी हुई। नीलमनि = नीलम! सींक = स्त्रियों की नाक में पहनने का एक आभूषण विशेष, जिसे लौंग या छुच्छी भी कहते हैं। निसाँक = निःशंक, बेधड़क। रसु लेतु = आनन्द लूट रहा है, रस चूस रहा है।

नीलम से जड़ी लौंग (उसकी) सुन्दर नाक में जगमग करती है, मानो भौंरा चम्पा की कली पर निःशंक बैठकर रस पी रहा हो।

नोट - गोरी की नाक चम्पा की कली है, पीलम-जड़ी लौंग भौंरा है। भौंरा चम्पा के पास नहीं जाता; पर कवि ने असम्भव को सम्भव कर दिया है।


बेधक अनियारे नयन बेधत करि न निषेधु।
बरबट बेधत मो हियौ तो नासा कौ बेधु॥86॥

बेधक = बेधनेवाला। अनियारे = नुकीले। निषेध = रुकावट। बेधु = छेद, छिद्र। नासा = नाक। बरबट = अदबदाकर, जबरदस्ती।

चुभीली नुकीली आँखें यदि हृदय को छेदती हैं, तो छेदने दे, उन्हें मना मत कर (वे ठहरीं चुभीली नुकीली, बेधना तो उनका काम ही है); क्योंकि तेरी नाक का बेध-लौंग पहनने की जगह का छेद-मेरे हृदय को बरबस बेध रहा है- जो स्वयं बेध है, वही बेध रहा है, तो फिर बेधक क्यों न बेधे?


जदपि लौंग ललितौ तऊ तूँ न पहिरि इकआँक।
सदा साँक बढ़ियै रहै रहै चढ़ी-सी नाँक॥87॥

ललितौ = सुन्दर। इकआँक = निश्चय। साँक बढ़ियै रहै = डर बना रहता है। रहै चढ़ी-सी नाक = नाक चढ़ी रहना, क्रुद्ध या रुष्ट होना।

यद्यपि लौंग (देखने में) अत्यन्त सुन्दर है, तो भी तू निश्चय उसे न पहन; (क्योंकि उसके पहनने से) तेरी नाक सदा चढ़ी-सी रहती है, जिससे मेरे मन में सदा भय की वृद्धि होती है (कि तू शायद क्रुद्ध तो नहीं है)!


बेसरि मोती दुति-झलक परी ओठ पर आइ।
चूनौ होइ न चतुर तिय क्यों पट पोंछयो जाइ॥88॥

पट = कपड़ा। बेसरि = नाक की झुलनी, बुलाक।

बेसर में लगे हुए मोती की आभा की (सफेद) परिछाँई तुम्हारे ओठों पर आ पड़ी है। हे सुचतुरे! वह चूना नहीं है (तुमने जो पान खाया है, उसका चूना होठों पर नहीं लगा है), फिर वह कपड़े से कैसे पोंछी जा सकती है?

नोट - नायिका के लाल-लाल होठों पर नकबेसर के मोती की उजली झलक आ पड़ी है, उसे वह भ्रमवश चूने का दाग समझकर बार-बार पोंछ रही है; किन्तु वह मिटे तो कैसे?


इहिं द्वैहीं मोती सुगथ तूँ नथ गरबि निसाँक।
जिहिं पहिरैं जग-दृग ग्रसति लसति हँसति-सी नाँक॥89॥

सुगथ = सुन्दर पूँजी। गरबि = अभिमान कर ले। हँसति-सी लसति = सुघड़ जान पड़ती है। ग्रसति = फँसाती है।

अरे नथ! तू इन दो ही मोतियों की पूँजी पर निःशंक होकर गर्व कर ले; क्योंकि तुझे पहनकर (उस नायिका की) नाक हँसति-सी (सुन्दर शोभासम्पन्न) दीख पड़ती है और संसार की आँखों को फाँसती है।

नोट - एक उर्दू कवि ने कहा है-‘नाक में नथ वास्ते जीनत के नहीं। हुस्न को नाथ के रक्खा है कि जाये न कहीं! जीनत = खूबसूरती। हुस्न = सौन्दर्य।


वेसरि-मोती धनि तुही को बूझै कुल जाति।
पीवौ करि तिय-अधर को रस निधरक दिन-राति॥90॥

अरे बेसर में गुँथ हुआ मोती! तू ही धन्य है। (भाग्यवान्) कुल और जाति कौन पूछता है? (अलबेली) कामिनियों के (सुमिष्ट) अधरों का रस तू निर्भयता-पूर्वक दिन-रात पिया कर।

नोट- ‘को बूझै कुल जाति’ से यह मतलब है कि मोती तुच्छ सीप कुल से पैदा हुआ है, तो भी उसे ऐसा सुन्दर सौभाग्य प्राप्त है, जिसके लिए कितने कुलीन नवयुवक तरसते रहते हैं!