भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीज-संवेदन- 7 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चारो ओर से अपने को काटकर
       स्वयं में उतरने की
       जब मैंने कोशिश की
       मेंरे अंगों में थरथराहट उतर आई
       अपनी बहिर्मुखी इंद्रियों को

       जब मैंने अंतर्मुख हुआ
       मेरे प्राण कँप गए
       आकर्षणों के मोह ने रुकावट डाली
       लेकिन फिर भी
       मैंने संकल्प को चुना
       और भीतर उतरने की तैयारी में
       अधिनिर्मित कपाट पर दस्तक दिया
       दस्तक देने के साथ ही
       मुझे जैसे विजली छू गई
       मेरा रोम रोम सिहर उठा
       और अचानक मेरे कदम
       कुछेक सीढ़ियॉ उतर गए.

       अब मेरे सामने
       मेरे करीब का एहसास था
       वहॉ मैं था, मेरी घबराहट थी
       वे स्मृतियॉ थीं, यह साक्षात था
       मेरा दीया था, मेरा अंधेरा था
       और मैं इन्हें महसूसता
       अपनी पोटेंशियलिटी के करीब था.

       मैंने अनुभव किया
       सहस्रों सूर्यों के बटोरने
       और दीप्तिमान होने की जो लिप्सा
       मैंने पाल रखी थी
       इस साक्षात के उजाले में
       धॅुधला गई थी
       यह उतावलापन

                   
     उन सूर्यों की चमकार से
     कहीं अधिक प्रभावान था
     लेकिन यह अनुभूति
     अधिक टिक न सकी
     क्षण भर की यह कौंध
     शीघ्र तिरोहित हो गई
     और मैं
     अपनी मूल प्रवृत्तियों के आईने में
     अपना थथमथाता चेहरा लिए
     फिर अपनी पूर्व स्थिति में था
     मेरी वह अनुभूति
     अब मेरी प्रतीति बन गई थी.