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बुखार / अनामिका अनु
Kavita Kosh से
मेरा बुख़ार तेज़ हो गया है
पिता देते हैं ज्वाराँकुश
मेरा बुख़ार सरसरा कर उतर रहा है
आहिस्ते साँप अपना केंचुल उतारता है
मैं हल्का होकर उड़ जाता हूँ
मिलने ब्रह्माण्ड में छितराए
कवियों से
एक सुनसान श्मशान में
परिजन ओढ़ाकर सफ़ेद चादर
छिड़ककर फूल हल्दी चन्दन
मेरे मुक्ति की कर रहे हैं कामना
एक लड़की रो रही है दूर खड़ी
जो न आभासी थी
न कभी रही मुझसे दूर
वास्तविक दुनिया का यह वीरान
आभासी दुनिया की शोरग़ुल से नितान्त अलग है
कविताएँ अब कहीं जाएँगी
एक मृत कवि की...
जब वे सुगबुगाएँगी पन्नों पर
कवि जाग उठेगा
यह वही कवि है
जिसने पहाड़ पर टाँगी लालटेन
और हमने पहाड़ देखा