बुद्धत्व / विशाखा मुलमुले
तुम चाहो सिद्धार्थ सा जाना
और घने अरण्य में बुद्ध हो जाना
जो तुम सिद्धार्थ तो मैं यशोधरा
मुझे महल में ही सन्यस्थ होना होगा
तुमने धारण किए गेरुए वस्त्र
मुझे तो सिंदूरी ही होना होगा
क्योंकि पुरुष;
पुरुष चाहे तो,
तज सकता है सांसारिक चक्र
जागृत कर सकता है
सातों चक्र मूलाधार से सहस्त्रार ...
पर स्त्री;
स्त्री इसके विपरीत है
वह ना कभी चक्रवर्ती रही है
चक्रों में अभिमन्यु सी उसकी गति है
जैसे ही वह ऊर्जा के सोपान चढ़ती है
और पहुँचती है अनाहत चक्र,
ममत्व उसे जकड़ लेता है,
रीते वक्षों में भी दुग्ध भर देता है
करुणा की एक पुकार गूँजती है
फिर नेत्र वह कहाँ मुंदती है
वह पुनः लौट पड़ती है
ऊर्जा को समेटे अपने मूल में
पर, तुम चाहो सिद्धार्थ-सा जाना
और घने अरण्य में बुद्ध हो जाना