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बुधवार / असद ज़ैदी

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साल भर बाद उसने पूछा —
हलो ! कैसे हो ? आज कौन सा दिन है ?
आवाज़ को पकड़ने और सम्भलने में मुझे वक़्त लगा
आज का दिन... मुझे सोचना पड़ा कौन सा दिन है यह
मैंने कहा — क्या इतनी ही बात थी ?
उसने कहा — हुँ-हूँ !
इस हुँ-हूँ ने मेरा सर चकरा दिया
मुझे दिन में तारे दिखने लगे
मैंने देखा मेज़ पर रखा गिलास चटका हुआ है

मेरे ख़याल से आज बुधवार है
तुम चाहो तो कुछ और भी पूछ लो

उसने कहा — अच्छा बताओ
तुम्हारा संगीत अभ्यास कैसा चल रहा है ?
और तुम्हारे रंगीन तबियत वाले गुरुजी कैसे हैं ?
मालूम है मुझे वह तिरछी नज़र से देखा करते थे !

मुझे याद है पर तुम्हें मालूम नहीं
दिल के दौरे से वह इसी साल परलोकवासी हुए
कुछ तो मेरी बेपरवाई कुछ वैसे गुरु
नि रे ग, रे स से मुझको आगे नहीं बढ़ने दिया
जैसे मैं कभी सीख ही न पाया कि आरोह में पंचम से कैसे कन्नी काटी जाती है
प म ग रे, स तक मुझे पहुँचने ही नहीं दिया
ऐसी मेरी खोटी क़िस्मत रही

महीना और साल जो भी हो
बुधवार हो कि बृहस्पतिवार
स्मृति मुझे कहीं भी भटकाए
मैं चाहता हूँ कोई लालसा आकर मुझे सम्भाल ले

(2009)