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बुन लिया उजियार मैने / निर्मला जोशी

एक यायावर किरण गत रात मेरे द्वार आई
इसलिए तो बुन लिया है, गीत यह उजियार मैंने।

मैं अंधेरे से अभी तक युद्ध
कितने लड़ चुकी हूँ।
इस पसीने को नगीने की
तरह से जड चुकी हूँ।
इस बुनावट से मुझे अनुभूति कुछ ऐसी हुई है
कर लिया जैसे मधुरतम गीत का शृंगार मैंने।

दूब हो या ओस दोनों ही
मुझे प्यारी लगी हैं।
हरितिमा के साथ आकर
जिंद़गी न्यारी लगी हैं।
अब गुलाबों से मुझे बिंधना उचित कैसे लगेगा?
क्योंकि जूही की शपथ ले छू लिया कचनार मैंने।

सीढ़ियों पर पांव रखते ही
मुझे ऐसा लगा है।
दर्द सारी ज़िंदगी का
बंधु या मेरा सगा है।
हाँ, मुझे वह इस तरह देता रहा शुभकामनाएं
वह अगर है गीत तो फिर सुन लिया गुंजार मैंने।

हाँ, नदी का ठहर जाना
छदम या अभिनय नहीं है।
हाशियों पर जो लिखे हैं
शब्द वह अनुनय नहीं हैं।
बहुत धीमी चाल से जो धूप आई सीढ़ियों तक
वह बने सूरज इसी से कर दिया उपचार मैंने।