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बूढ़ी औरत, कविताएँ और मैं / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
छोटी-सी महफ़िल थी
पढ़ी जा रही थी कविताएँ
बड़ी-बड़ी समस्याओं को सुलझाती
शब्दों के चक्रव्यूह में
श्रोताओं को उलझाती
एक कोने में बैठी
वह बूढ़ी औरत
डाल रही थी स्वेटर के फंदे
ऊन का गोला
उसकी गोद में
नन्हें से खरगोश की भांति खेलता
कविताएँ उसके सिर के
ऊपर से गुज़रतीं
बहुत सहज बुनती रही वह सलाइयाँ
ऊन का गोला उसकी गोद में
नन्हे खरगोश की भांति उछलता
फिर मेरी बारी आई
मैंने पढ़ी कविता की पहली लाइन
फिर दूसरी
फिर तीसरी
मैंने देखा
ऊन का गोला उछलने से रुक गया
मेरे सीधे-सादे शब्द सुन कर
हैरान हुई वह बूढ़ी औरत
हाथों में मचलती सलाइयाँ रोक कर
वह सुनने लगी मेरी कविताएँ
ऊन का गोला
किसी छोटे से खरगोश की भांति
अब उसकी गोद में
दुबका पड़ा था।