भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेमतलब वो कब खुलते हैं / राजमूर्ति ‘सौरभ’
Kavita Kosh से
बेमतलब वो कब खुलते हैं,
जब खुलना हो तब खुलते हैं।
चुप रहते हैं मेरे आगे,
मेरे पीछे सब खुलते हैं।
आप खुलें तो दुनिया देखे,
सचमुच आप गज़ब खुलते हैं।
खुल न सकी ये बात अभीतक,
आख़िर कब साहब खुलते हैं।
रोज़ छला जाता है इंसाँ,
रोज़ नये मज़हब खुलते हैं।
उठजाता है जिसदम पर्दा
कितनों के करतब खुलते हैं।
खुल जाती हैं आँखें सबकी,
जब 'सौरभ' के लब खुलते हैं।