बेरंग हो चुकी धरती पर / शिव कुशवाहा
ठूठ हो चुके सम्बंधो में
अब पानी की कमी जाहिर हो चुकी है
कदम दर कदम जब साथ चलना ज़रूरी होता है
तब संताने छोड़ देती है उनका हाथ
उनके ध्वंस होते हुए सपनों ने
देख ली है सम्बंधों की हकीकत
कराह रही मानवीय संवेदना को
अब पढ़ लिया है उनकी पथराई आंखों ने
उन्मुक्त आकाश की ऊचाइयों पर
डेरा बनाने वाले पक्षी की तरह
उनकी बेरंग हो चुकी ज़िन्दगी भी
अब निर्द्वन्द जीना चाहती है अपना जीवन
साथ ही साथ देखना चाहती है वह सब कुछ
जो एक जीवन जीने के लिए होता है ज़रूरी
जाहिर हो चुका है
कि भाषा ने भी तोड़ दिया है अपना दम
कवि की कलम कांप जाती है बार बार
कविता भी असमर्थ हो गयी है
चंद शब्दों की व्यथा-कथा कहने में
हम बेरंग हो चुकी धरती पर सीखें रंग भरना
क्योंकि बेरंगी में तब्दील हो रही दुनियाँ
अब बाट जोह रही है फिर अपने रंग में वापस होना...