भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेरी के कच्चे बेर / सुधेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी बेरी के कच्चे बेर न तोड़ो
इन्हें धूप में और अभी कुछ पकने दो ।
        बेमौसम कीकर या बेर नहीं खिलता
        बरजोरी में शीश उठा काँटा मिलता
        कच्चे कच्चे बेर अभी तो बच्चे हैं
इन को यौवन की गरमी में तपने दो ।
        बेरी खिली अकेली जंगल जंगल में
        मंगल ही मंगल है देखो जंगल में
         क्वारे हाथ न पकड़ो कोमल किसलय के
 रेखाएँ सतरंगी और उभरने दो ।
        बेर नहीं हैं ये तो मद के प्याले हैं
        मधु के कोष इन्हीं में घुलने वाले हैं
        ठहरो ठहरो ऐसी भी क्या जल्दी है
नव यौवन के रंग में इन्हें सँवरने दो ।
मेरी बेरी के कच्चे बेर ........।