भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेसबब मुस्कुरा रहा है कोई / अजय अज्ञात
Kavita Kosh से
बेसबब मुस्कुरा रहा है कोई
देखो ग़म को चिढ़ा रहा है कोई
कौन रक़्सां है अपनी मर्ज़ी से
उँगलियों पर नचा रहा है कोई
मैं तो मिट्टी हूँ और कुछ भी नहीं
मेरी क़ीमत बढ़ा रहा है कोई
चुभ न जाएँ उसी के पैरों में
शूल पथ पर बिछा रहा है कोई
अपने दिल की सलेट से ‘अज्ञात’
नाम मेरा मिटा रहा है कोई