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बेहतर है रो लो अब / अनुराधा सिंह

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आँखें सूखी
चेहरा पानी था
वज़ूद था कि एक ज़र्बज़दा बूंद
मैंने रोने की तमाम वज़हें दीं थीं
तमाम वज़हें दीं थीं बिखर जाने की
पर वह थी कि अब भी
जब्तशुदा
बहुत लाचार
बहुत नाकाम
बदन काँपता ही रहा
सदियों से बेहिस आँधियों के थपेड़ों में
माथे पर फेरा दो चार बार बेबस हाथ
होंठ खोले और बंद किए
और मैं बस इतना ही कह पाया
"इससे अच्छा तो रो लो एक बार।"