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बे ख़्याली / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
मैं हर रोज़
तुम्हारी यादों की
धीमी आंच पर
रखती हूँ ख़ुदको
इतना भूल चुकी हूँ
सुध बुध को
तुमसे पहले
दर्पण ने
मुझको कब देखा था
कुछ याद नहीं है
और क्या बताऊँ
अपने बारे में
तेरे सिवा इस दिलमें
कोई फ़रयाद नहीं है
तुमसे बिछड़ कर
बे ख़्याली में
जाने क्या-क्या हो जाता है
कभी जूड़े पर बंधा रिबन
खुल जाता है
कभी दुपट्टा सर से
गिर जाता है
देखो आज भी
मैंने वही किया
रोटी तो बेली
तवे पर रख दी
ख़ाली हथेली
ए ज़हर आलूद हवाओं
मिल के बिछड़ने का
दुःख समझो
तुमको समझने की हमने
कोशिश बहुत की
अब तुम भी
जुदाई का कुछ दर्द समझो॥