बोध की ठिठकन- 2 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मन के किसी कोने में
ज्वार-भाटी तरंगें
मेरी काया के रंध्रों में
रूप भरती हैं-
इस रूपक दिनचर्या में
कुछ ऐसा भी होता है
कि मेरे अंदर
अपनी पहचान की दुविधा में
कोई थिर हो जाता है.
इस थिरादट में
तरंगों को ही नहीं
बीचियों की सिहरन को भी
दह तटस्थ महसूसने लगता है.
अब मेरी रूपनिर्मिति के आयाम
बदलने लगे हैं.
वायु में तिरते थपेढ़ों से
रोज दिन मेरी टकराहट होती है
मगर अब
चोटों के सहलाव पर जीना
मुझे पसंद नहीं.
प्रतिक्रिया पंख फड़फड़ाती है
पर मूल को पाने का आकर्षण
कुछ इतना गाढ़ा है
कि तरंगों की उभरन और तिरोहण में
फर्क करना कठिन है.
मेरी देह-घाटी में
पत्तियों की मर्मर तक से
खरोंच उभरती है
फिर भी वहाँ अंतराल में
कुछ अक्षत रह जाता है.
घाटी में उमड़ते हलचलों के
तटस्थ दर्शन में
कभी कदा
कोई दीर्घाती दीप्ति-तरंग
मुझे मेरे अंतराल से
जोड़ती भी होती है.
इस जुड़ाव के क्षण में
मैं ताजा अनछुआ
कदाचित क्वाँरा हो जाता हूँ