बोलते पत्थर / प्रतिभा सक्सेना
बोल उछते हैं ये पत्थर!
हटा कर यह सदियों की धुन्ध, और जो पडी युगों की भूल,
अनगिनत अविरल काल-प्रवाह इन्हीं मे खोते जाते भूल!
अभी भी अंकित रेखा - जाल, बीतते इतिवृत्तों की याद,
सो रहा यहाँ युगों से शान्त, पूर्व की घडियों का उन्माद!
सँजोये कितने हर्ष -विषाद, अटल हैं ये बिखरे पत्थर!
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गगन के बनते-घुलते रंग, क्षितिज के धूप-छाँह के खेल .
शिशिर का हिम, आतप का ताप और वर्षा की झडियाँ झेल,
किसी स्वर्णिम अतीत के चिह्न, खो गये वैभव के अवशेष,
समय के झंझावातों बीच, ले रहे अब भी स्मृति का वेश!
किसी की भावमयी अभिव्यक्ति सँजोये ये चिकने पत्थर!
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कला की अथक साधना पूर्ण, कुशलतम कलाकार के हाथ,
यहाँ इंगित करते हैं मौन, अमर है कला, अमिट है भाव!
मिट चुका मानव चेतनशील, नहीं पर नष्ट हुये निर्माण
शून्यता के सूने साम्राज्य,बीच भी हैं प्रत्यक्ष प्रमाण!
विश्व की छल- माया के बीच, आज भी ये निश्चल पत्थर!
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भव्य मंदिर के भग्नावशेष आँकते काल कथा का मोल,
बिगत की धूमिल छाया बीच दे रहे स्मृतियों के पट खोल!
भावना में कितना सौंदर्य, स्वप्न का कितना मूर्त स्वरूप
कठिनता का निरुपम शृंगार, चेतना का निस्स्वर प्रतिरूप!
बोल ही देते हैं चुपचाप, सजे-सँवरे बिखरे पत्थर!
पडे हैं बिखरे खँडहर किन्तु, एक दृढता है सीमाहीन,
किसी मीठे अतीत की करुण कहानी सोती संज्ञाहीन!
गूँज जाते हैं नीरव गीत, किसी पाषाण खण्ड में भ्रान्त,
विगत की भूली-बिसरी याद, कसक उठता निर्जन एकान्त
देखते रहते हैं चुपचाप युगों से निष्चेतन पत्थर!
विवशता की गहरी निश्वास, छोड आगे बढ जाती वायु,
नहीं संभव अब कायाकल्प, रूप की शेषरूप, यह आयु!
फूँक जाती हैं किंचित जान .विश्व की परिवर्तन मय श्वास,
नहीं ये बिखरे प्रस्तर खंड, मनुज के लुटते से विश्वास!
उडाते जीवन का उपहास अचेतन ये निर्मम पत्थर!