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बोल पगे हैं शक्कर से / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अब भी बड़े सुहाने लगते,
लिपे हुए घर गोबर से /
घर कच्चा है गाँव बड़ा है,
आंगन सुन्दर प्यारा-सा /
लिपा गाय के गोबर से है,
दिखता सजा संवारा-सा /
सौंधी-सौंधी गंध उठ रही,
चूना पुते हुए घर से /
नीम छाँव वाले आँगन में,
मढ़े माड़ने चूने से /
बेल, पत्तियों पर टाँके हैं,
सुन्दर फूल करने से /
सब जूते चप्पल बाहर हैं,
दादी अम्मा के डर से /
पूजा के कमरे में उठती,
है सुगंध। वन चंदन की /
सुबह शाम कानों में पड़ती,
मधुर गूँज टन-टन-टन की /
ईश वंदना करते हैं सब,
धीमे मधुर-मधुर स्वर से /
स्वर्ग सरीखे सारे सुख हैं,
घर आंगन में देहरी पर /
हंसी ठहाके गूंजा करते,
सुबह शाम दोपहरी भर /
बोल सभी के मीठे जैसे,
पगे हुए हैं शक़्कर से /