भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बौने / अनिल विभाकर
Kavita Kosh से
बौने चढ़ गए पहाड़
तोड़ लिया ज़मीन से रिश्ता
उनके पहाड़ चढ़ने से हमें क्या एतराज
पहाड़ पर चढ़े बौने और भी बौने नज़र आते हैं
इस युग में कठिन ज़रूर है मेरुदंड की रक्षा
मुश्किल में है नमक की लाज
घोंसले में कब घुस जायेंगे सँपोले
कठिन है कहना
सच तो यह भी है
बौने, बौने ही नज़र आएँगे राजसिंहासन पर भी
बड़े होने के लिए ज़रूरी है ख़ुद का क़द बढाना
बड़े कद वाले भी बौनों की तीमारदारी में
जब गाते हैं राग राज, पढ़ते हैं कसीदे
वे बौने हो जाते हैं ।