भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भजन / 4 / भील

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
भील लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

सरग झोपड़ा बांदिया, ने बणा लिया रे दुवार,
सरग झोपड़ा रे बांदिया॥
घर ऊँचा रे धारण नीचा, धरे नेवा नीची रे निकास॥
बारी रे छ छ सब धरिया
बिच बारी रे लगाय, सरग झोपड़ा रे बांदिया॥

बिना टाकी का घर घड़िया, नहिं लाग्या रे सुतार॥
हीरा मुद्रिका जड़ाविया
घरे मेल बनिया केवलास, सरग झोपड़ा रे बांदिया॥

खम्बा रे दीपक जले हाँ रे जाका रे भया उजाळा
तन की रे बत्ती बणाविया, सरग झोपड़ा रे बणाविया॥

धवळा घोड़ा मुख हासन, हीरा जड़िया पलाण॥
चांद सूरी मन पेगड़ा, हाँ रे उड़ी हुया असवार॥
सरग झोपड़ा बांदिया।

- तुम्हारा झोपड़ा स्वर्ग में बने, हमेशा इसका प्रयास करना। तुम्हारे झोपड़े का चौड़ा द्वार हो, घर ऊँचा हो, जिसके निकास का द्वार छोटा होना चाहिए। जिस घर के दरवाजे में हीरा-मोती जड़ें हों। उस घर के सामने जलने वाले दीपक की रोशनी से सारा जग प्रकाशित हो। यह सब तुम्हारे आचरण से ही सम्भव है।