भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भजन की लगन न लागी रे! / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
राग शिवरंजनी, कहरवा 18.7.1974
भजन की लगन न लागी रे!
जगत तज्यौ, पै भयो न मन अबहूँ अनुरागी रे!
तनकी सुविधा मन की दुविधा अजहुँ न त्यागी रे!
प्राननाथ की रति में यह मति अबहुँ न पागी रे!॥1॥
स्वारथ की ही करत कलपना विरति न जागी रे!
परमारथ की प्रबल प्यास उर अबहुँ न लागी रे!॥2॥
अपनो सुख अजहूँ मन चिन्तत, सुख को रागी रे!
पर - दुख देखि कबहुँ करुनाकी वृत्ति न जागी रे!॥3॥
असन-वसन को मनन करत यह चित्त अभागी रे!
ऐसे मन में प्यास प्रीति की काकों लागी रे!॥4॥
जो तू तन-सुख तजै जगै निस्चै विरहागी रे!
विरहानल बिनु कबहुँ न प्रभु की पद-रति जागी रे!॥5॥
पै अब निज बल थक्यौ हीय सब आसा त्यागी रे!
तदपि स्याम-करुनासों हुइ है अवशि सुभागी रे!॥6॥