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भरोसे की कविता / लीलाधर जगूड़ी

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शरीर के भरोसे दिल
मज़दूर के भरोसे मिल
सरकार के भरोसे देश

लेकिन किसके भरोसे छोड़ी जाए जवान लड़की ?
किसके भरोसे छोड़ी जाए अकेली औरत ?

चीज़ों के भाव का
गुँडों के ताव का क्या भरोसा ?

काग़ज़ के ताव पर नहीं समाए जो
इतनी बड़ी शिकायत लिखाए जो
वह भी सोचता है कि गवाह का क्या भरोसा ?

बार-बार उभरता है एक डर
-परिवार को छोड़ेंगे घर के भरोसे
लेकिन किसके भरोसे पर छोड़ेंगे घर ?