भाग 12 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि
दोहा
बादसाह सुनि बचन ये, भयो क्रोध को रूप।
तब वजीर सों यों कही, अब ही मारो भूप॥111॥
दियौ हुकम सब कटक को, करौ कूच इस वक्त।
आप सवार भयो तबै, तजिकै दिल्ली तख्त॥112॥
सैन साज चतुरंगिनी, चले कूच दर कूच।
पहुँचे रनथंभौर में, देख्यौ अति ही ऊँच॥113॥
बादसाह बैठे तखत, घेर बनात कनात।
दिये मोरचे लायकै, करी जुद्ध की घात॥114॥
गढ़ ऊपर तें नृपति के, छूटत बान अचूक।
गढ़ नीचे तें साह की, छूटैं तोप बँदूक॥115॥
लरैं दुहूँ दल के सुभट, रह्यो सब्द अति माच।
बादसाह इत ऐस में, नृपति लखै नित नाच॥116॥
धारु वारु नाम द्वै, पातुर परम प्रवीन।
नचैं नृपति दरबार में, ताल सुरन में लीन॥117॥
बखत रात के इक दिना, थमे मोरचे भूल।
बैठे साह इकंत में, परी नाच धुनि कूल॥118॥
महिमा मीर मंगोल को, भैया हो इक और।
बादसाह के पास वह, हाजिर हौ वा ठौर॥119॥
लघु नाराच
उड़ान बेग नाम है। करै अनोख काम है॥
चलाइ बान तान कै। हनै जु सब्द जान कै॥120॥
कही उड़ान वेग सों। जु साह ने अवेग सों॥
चलाय तीर पातुरै। जु सब्द साथ आतुरै॥121॥
कही जु साह यों जबै। उड़ान वेग ने तबै॥
कियो विचार है सबै। गिराउँ पातुरै अबै॥122॥