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भाद्रपद-2 / राम मेश्राम

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झरे-झरे री हरसिंगार बन, मन-वृन्दावन झरे,
मरे-मरे री विगलित मन की ईर्ष्या-अनबन मरे ।

झर-झर झरे देह का भादों-लथपथ गगन बहे,
सिमटे-भीगे वस्त्र धाम अंतर से सर्जन बहे ।
ख़ुशबू की बौछार मारता सन-सन पवन बहे,
दूर देश का मेघ मिला है,अब तो कहन कहे ।

मसृण-कृष्ण कुंचित कुन्तल पर मोती अगिन झरे,
झरे-झरे री हरसिंगार बन, मन वृन्दावन झरे ।

हरित-अंबरा, वह सितंबरा, ठुमक-ठुमक पग दे,
बिजली फेंके आसमान से, इंद्र वज्र रख दे,
फटे रात का बुर्का काला, सुबह योग तज दे,
घटा घोर, शहज़ोर-चोर री, चाहे जो कर दे ।

नई मल्लिका के शबाब का कुसुमित चमन झरे,
झरे-झरे री हरसिंगार मन, मन वृन्दावन झरे ।