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भारती के नाम कवि का पत्र / श्यामनन्दन किशोर

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(न माँ के सामने संकोच का कुछ प्रश्न उठता है,
ज़रा बेचैन मन को खोलकर ओ लेखनी, धर दे!
अटल पाषाण को भी सुगबुगा जो द्रवित कर देता,
मचलते अनुभवों के सजल कण को शब्द-निर्झर दे!)

अभय माँ शारदे, वर दे, न मन को गीत कातर दे,
बुझे हैं जो दिये स्वर के, उन्हें तू ज्योतिमय कर दे!

बँधे निर्माण काँटों में,
कलाविद फूल पर लेटे।
यहाँ संहार में गुमराह हैं
विज्ञान के बेटे!

जहाँ धन के खुले बाज़ार में नीलाम है विद्या,
वहाँ कुछ तो हया से तू झुकी नारी, झुके नर दे!

मनुज पथभ्रान्त धरती पर
रुधिर के बीज है बोता,
यहाँ वक की चरण-रज को
विवेकी हंस है धोता।

विकल ईमान की जो द्रौपदी डर रो रही बेबस,
उसे तू लाज ढँकने को, वसन दे, या कफ़न भर दे!

समर से भागते हैं पार्थ
सुनकर कर्ममय गीता,
अशोकों से भरे वन में
सशोका शान्ति की सीता।

यहाँ क्यों प्रश्न-चिह्नों से खड़े मन्दिर, खड़ी मस्जिद?
अरी वाणी, प्रकट होकर हुआ क्या हाय, उत्तर दे!

विभा की फूटती लौ को
तुनुक घन रोक लेंगे क्या?
महज़ दो-चार ये तिनके
प्रभंजन रोक लेंगे क्या?

क्षितिज को और विस्तृत कर, अरुण मुख और विवृत कर,
नये युग के झिझकते सूर्य को अम्बर बृहत्तर दे!
अभय माँ शारदे, वर दे, न मन को गीत कातर दे!
बुझे हैं जो दिये स्वर के, उन्हें तू ज्योतिमय कर दे!

(1962)