भावों की सरिता / प्रीति समकित सुराना
मन में बहती भावों की सरिता, मेरी बस उससे पहचान।
मैं कैसे कोई गीत लिखूँ,मुझे नहीं छंदों का ज्ञान॥
भावों को लिखती बुनती हूँ, लोगों की सुनती हूँ बात।
मन विचलित सा रहता मेरा, बीत गई फिर से इक रात॥
जोड़ तोड़कर कुछ लिखती हूँ, ढूंढूं नये शब्दों की खान।
लेखन में जीवन बसता है, लेखन में बसते हैं प्राण॥
मन में बहती भावों की सरिता, मेरी बस उससे पहचान।
मैं कैसे कोई गीत लिखूँ,मुझे नहीं छंदों का ज्ञान॥
भाव प्रेम या मिलन-विरह के,स्मृतियों से आँखों में नीर।
व्यथित सदा रहता है मन ये, कैसे बंधाऊँ मन को धीर॥
सुन भी लूं मैं गीत खुशी के ,मन गाता पीड़ा का गान।
अधर भले ही मुसकाते हैं, धड़कन छेड़े दुख की तान॥
मन में बहती भावों की सरिता, मेरी बस उससे पहचान।
मैं कैसे कोई गीत लिखूँ,मुझे नहीं छंदों का ज्ञान॥
सुख दुख की गणना कैसे हो, लघु गुरु हो या सुर लय ताल।
गिन गिन मैं कैसे बतलाऊँ, अपने इस जीवन का हाल॥
सीख नहीं पाई अबतक मैं, न कोई विधा न ही विधान।
गीत जगत में कभी मिलेगा, मेरे इन भावों को मान???
मन में बहती भावों की सरिता, मेरी बस उससे पहचान।
मैं कैसे कोई गीत लिखूँ,मुझे नहीं छंदों का ज्ञान॥