भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाषाएँ टकराती हैं / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भाषाएँ टकराती हैं

चट्टानों से भी

जीवन ले कर या दे कर


दो ही पद

तुलते हैं जिह्वा पर

जो जानी अनजानी धारा में

कुछ अपने लगते हैं

डगमग नैया खे कर


किन किन चेहरों की

क्या क्या मुद्रा

कब कब क्या दे गई झलक दे कर

जब तब हम कुछ आपा पाते हैं

कहीं किसी को से कर