रिश्तों के जंगल में
अपनी कुदरती भाषा के साथ
अपनी-सी भाषा की तलाश में
भटकती रही मैं
तुम मिले
तुम जो मेरे जैसे न थे
मैं जो तुम्हारे जैसी न थी
कोई समानता नहीं थी
हममें
सिवा भाषा के
जो कुदरत ने बख्शी थी
तुम्हें भी
हमें भी
जीते हुए बस तुममें
महसूस करने लगी अचानक
कि दुनिया के सामने
बदल जाती है तुम्हारी भाषा
तुम खूब जानते हो
बाहरी रिश्तों को निभाना
उस वक्त मैं
बिल्कुल अकेली पड़ जाती थी
तुममें ही
ढूंढते हुए
तुमको।