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भीड़ / रश्मि प्रभा

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भीड़ !
जहां हर कोई बोलता है,
पर सुनता कोई नहीं है
जो भीतर की आवाज़ को दबा देता है...
अकेलापन !
जहां शब्द हाहाकार करते हैं,
स्मृतियां
लहरों की मानिंद तैरती हैं...
या वह सन्नाटा
जहां न चाह है, न पीड़ा,
केवल एक ठहरा हुआ मौन है...
इन तीनों के बीच झूलता जीवन
कभी खुद से लड़ता है,
कभी खुद में छिप जाता है...
पर एक दिन
मृत्यु आ ही जाती है !
बिना किसी दस्तक के,
बिना तर्क के,
बिना यह पूछे कि
तुम भीड़ में थे,
अकेले थे या बस चुप थे ?