भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भीतर के जहर / मुनेश्वर ‘शमन’
Kavita Kosh से
कमरा के कोना में
बैठल हे एगो बिखधर।
कहाँ देख पावऽ हे ओकारा सभे।
देखते हल तऽ सायत
मार डालते हल ओकरा।
सच्चे कहल जाय तऽ।
जब ई महल बनल।
एकरा सजावल-सवांरल गेल।
चमक उथल एकर सुन्नरता।
कुदरत में घुल के / मिल के
हवा-धूप-पानी में धुल के।
बाकि एकर भीतर के नाग
घोर जा हइ अक्सर
वातावरण में जहर।
कत्ते दरद जन्म ले हइ तब
जीवन में /
सुनऽ हूँ /
साँप जब चाँप खा हइ
तभिये डँसे हे।
गुनऽ हूँ तऽ पावऽ हूँ
दंस तो एकर सोभाव में बसे हे
काश!
लोग एकरा भगा पात हल।
अमरित से
जहर के मार जात हल।