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भीतर से भीतर जाने में / अनिरुद्ध नीरव
Kavita Kosh से
भीतर से भीतर जाने में
चुक जाता हूँ
भीतर जीवाश्म भरे स्वप्न के
चट्टानी अँधकारों की तहें
मायावी क्रूर भयावह मगर
वे ख़ुद को इन्द्रधनुष भी कहें
इन पर कोई रौशन ज़ख़्म-सा
दुख जाता हूँ
पहले कुछ धूसर बदरंग-सा
फिर गहरा नीला फिर बैंजनी
इसके आगे कोई ठोस तह
निर्मम निर्भेद्या काली घनी
आगे कोई वश चलता नहीं
रुक जाता हूँ
बाहर की त्रासदियों का वज़न
सहता आया भींचे मुट्ठियाँ
इस तम का दाब टनों है मगर
कड़कड़ बज उठती हैं हड्डियाँ
टूटूँगा इस भय से क्या करूँ ?
झुक जाता हूँ
मैं कोई विस्फोटक बाँध कर
आता तो यह निर्मम टूटता
फिर मेरा सूर्य यहाँ बन्द जो
अँगड़ा कर क्षितिजों पर छूटता
अपनी असफलता की आग में
फुँक जाता हूँ ।