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भुखमरी का गीत / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
ख़ुद कर देगी भूख अकिंचन शाम तक
पहुँच नहीं पाओगे तुम आराम तक।
भूख दौड़ती है जब सारी देह में
आँधी को परिवर्तित करती मेह में
इज़्ज़त को परछाई कर अन्धियार में
ले जाती है साहू जी को गेह में
घूरे-सा घूरेगी थोड़ी देर में
ऐंठ-अकड़ चुक जाएगी गोदाम तक।
सुबह बुलाएगी तगड़ी आवाज़ में
तोड़ेगी, तोलेगी, थोड़े नाज में
लाज माँज कर रख देगी जब थाल में
घर तक नाज बजेगा ऊँची ब्याज में
फिर बाँधोगे मोटी चार मदूकरी
तभी पहुँच पाओगे अपने काम तक।
जब तक भूख अकिंचन है, बेगार है
भात, रात का खाने को तैयार है
सत्तू और चबेना गुड़ की डेली तक
सूदखोर के हाथों का व्यापार है
हल्की-फुल्की, सुलह-संधि को तोड़कर
जाने किस दिन पहुँचेगी अंजाम तक।