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भूखा आदमी / इब्बार रब्बी
Kavita Kosh से
भूखे आदमी को लगता है कि जैसे
वह नंगा हो गया है,
कुछ पेट उसे नोच रहे हैं ।
उसकी आत्मा से तृप्ति का केंचुल
उतर गया है
वह अपने में सिकुड़ रहा है,
कि उसकी भूख और अधिक और अधिक
नंगी न हो जाए
वह भूख से बाहर नहीं निकलता
अपना कुछ भी
भूख में डूब जाने के लिए
इधर-उधर कातरता से कतराता है
भूखा आदमी सितम्बर की धूप में
यहां आता है, वहां जाता है
वह लपटों की सीढ़ियां चढ़ता है
उतरता है ।
उसे लगता है कि वह भूलभुलैया में भटक रहा ऐ
जो पिघले लोहे से भरी है
उसे लगता है कि समुद्र सूख रहे हैं
उसकी खाल और स्वभाव तड़क रहा है ।
रचनाकाल : 28.08 1976