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भैरवी / प्रतिपदा / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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आइ वातावरणमे अछि तप्त युग केर ताप
भैरवी झंझाक गतिमे झरत जगतक पाप।।1।।
तार स्वप्न क टूटते जागरण भैरव गीत
वर्त्तमानक चरण-घातेँ चूर्ण पतित अतीत।।2।।
कोनहु कोनहिमे मलिन अछि जकर क्षीणालोक
जे न जगबय ज्वाल उर, ने हरय तिमिरक लोक।।3।।
क्षणिक दीपक मृत्तिकाक न आइ बचत इजोत
भैरवी झंझाक झोँकक कतहु अछि न इरोत।।4।।
आइ जन-मनमे न भ्रम हो कतहु मुक्ता-सीप
द्वीप-द्वीपक तिमिर हारी उगओ गगनक दीप।।5।।
आई केशव-ग्रीबमे नहि छजत गुंजा माल
सिन्धु मथि प्रस्तुत जखन अछि कौस्तुभक मणि-माल।।6।।
विद्युतक ई क्षणिक विलसित बन्द युग-युग हेतु
महापवनक वेग चालित भिन्न मेघक सेतु।।7।।
इन्द्र-धनु नव रंग रंजित स्वयं लेापित क्षुद्र
कयल ज्या योजित पिनाक जखनहि रुद्र।।8।।
नहि पिपासित भूतलक हित लघु जलक ई कूप
उमड़ि आयल गगन-तटमे जखन मेघ स्तूप।।9।।
आइ नहि नूपुरक रुन-झुन वेणु-वीणा शब्द
गगनमे गर्जल जखन गम्भीर स्वरमे अब्द।।10।।
कामिनी यौवन न पार्थक रुचि-विलासक वस्तु
पाशुपत पूजित जकर शुचि लक्ष्य तपसँ अस्तु।।11।।
घिचत कृष्णा-चीर दुःशासनक नहि जे शक्ति
चढ़ल कृष्णक अंगुलिक ब्रण-बद्ध वस्त्रक भक्ति।।12।।
स्वर्ण पुर-उद्यान उजड़त मरुत-सुतहि क हाथ
कनक-मृग छल हरल जे खल मैथिली दशमाथ।।13।।
नहि निशा-पट तिमिर क्षालित नखत फेनक बिन्दु
किरण-माली उदित होइछ पूर्ण राका-इन्दु।।14।।
मास मधु की लय मनाओत दग्ध उर उद्यान?
विषुव रेखा टपि उगल छथि भानु दिग् ईशान।।15।।
मेघ-माला सजल झरते गलित नीरक गर्व
देखु गगनक फाँकमे हँसि रहल शारद पर्व।।16।।
क्षीण आशावरी स्वर जत भैरवी झंकार
किन्तु नहि संहार ई नव सृष्टिहिक उपहार।।17।।