भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भोर / मोनिका कुमार / ज़्बीग्न्येव हेर्बेर्त
Kavita Kosh से
भोर होने से पहले के गहन क्षण में
पहली आवाज़ गूँजती है
जो चाकू के घाव की तरह कुन्द और तीखी होती है।
फिर रात की ठूँठ से मिनट दर मिनट सरसराहट बढ़ती है।
ऐसा लगता है जैसे कोई उम्मीद नहीं बची।
जो भी उजाले के लिए संघर्ष कर रहा है
हद दर्जे तक कमज़ोर है।
और जब क्षितिज पर
पेड़ की रक्ताभ, स्वप्निल, विराट और दर्दीली फाँक
दिखाई देती है तो
हमें चाहिए कि हम इस चमत्कार को आशीष देना ना भूलें।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : मोनिका कुमार