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भोर / संजय 'सुमन'

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त संसरी गेलै, भोर पसरी गेलै !
ओसोॅ के बुन्द छै, घांसोॅ के गामा में,
अजगुत रं लाली छै भोरोॅ के आभा में,
पिपरोॅ के पत्ता कुछ भिजलोॅ रं लागै छै,
लोर जेना केकरो कि चूलै-टघरी गेलै !
निलका तलाबोॅ पर कमलोॅ के छाती सें,
सटलोॅ छै भौरा रस चूसै छै राती सें,
पड़लै जे फूलोॅ पर सुर्ज के तेज किरण,
थोड़ोॅ टा खिललै ऊ आरो झबरी गेलै,
जिनगी के चार रूप जाय छै आबै छै !
बितला पर सोची केॅ सब्भे पछताबै छै,
जिनगी के सरिता में डूबी केॅ नै जानों,
की कुछ बेगरी गेलै, की कुछ सम्हरी गेलै ।
रात सँसरी गेलै, भोर पसरी गेलै !