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मंज़र बदल गया / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
वो अपने
जिस्म के अहाते में
सैर पर निकले थे
और प्रवासी हो गये
पत्थरीली राहों पे
कुछ नन्हें फूल खिले
कुछ खिलने से पहले ही
बासी हो गये
अपने बदन की, क्यारी में
बोया था जिस माँ ने
वजूद अपना
उन पौदों ने
सब्ज़ आंखों से
अपनी माँ को पुकारा था
और माँ ने
नर्म आंखों से
उन आवाज़ों को
बस अपनी ओर
आते हुये देखा था
कि दोनों आँखों के दरम्याँ
मंज़र बदल गया
ज़िन्दगी रस्ते में छोड़कर
मुसाफ़िर
जाने कहाँ निकल गया॥