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मंज़िल दूर नहीं अब / विशाल समर्पित
Kavita Kosh से
मंज़िल दूर नहीं अब हमसे हम संभल रहे गिरते-गिरते
अधरों को तपती रेत मिली जब-जब नदिया-तट पर पहुँचे
हर चौखट पर मिली उपेक्षा जब-जब जिस चौखट पर पहुँचे
बोझ नेह का सर-पर धर-कर हम ऊब रहे फिरते - फिरते
भोला मन मुझसे कहता है सबसे रिश्ते तोड़-ताड़ लो
जिसमे सब अपने ही दिखते ऐसा दर्पण फोड़-फाड लो
मन - मेघों के षड्यंत्रो से हम बच निकले घिरते-घिरते