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मंजिलों की राहें / मनोज चौहान

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आसान नहीं होती हैं,
मंजिलों की राहें,
कदम -2 का सघंर्ष,
करता जाता है निर्माण,
एक नई सीढ़ी का ।

हर शख्स पास होकर भी ,
अक्सर दूर होता चला जाता है,
रिश्तों की नाजुक डोर में,
पङ जाती है गाठें,
हो जाता है तन्हा आदमी,
उलझकर कालचक्र के भंवर में ।

महज फूलों की चाह में,
ना चलना,
इन राहों पर ऐ दोस्त,
मंजिलों की राहों पर,
मिलतें हैं काटें भी ।

कदमों की भीङ में,
लड़खड़ा उठता है,
आत्मविश्वास भी,
धूमिल हो चलती हैं आशायें,
सम्भलना पङता है आदमी को ,
बार-2 गिरकर भी ।

दूर पश्चिम के क्षितिज पर,
ङूबता हुआ सूरज,
कर देता है आन्दोलित ,
अंतर्मन को,
और दे जाता है आगाज,
एक नई सुबह के लिए ।