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मक्खीपानी का समय / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
मर्जी से आपकी खिल उठे फूल, बहे हवा
दौड़ पड़ें वे सब ऐसा मुमकिन नहीं
और न ही यह संभव कि तुम्हारे इशारे पर
हम लपक पड़ें पड़ों की तरफ बेसाख्ता
धूप को कुछ और तेज होना है अभी
चन्द्रमा को चमकदार
फूलों में रंग चटके नहीं इतने कि
पराग बरस उठे भीतर से अपने-आप
खिलखिलाकर हँसेगी धूप जब कभी और
नृत्य करेगा चन्द्रमा तारों के बीच
वे उतरेंगी अपनी मनपसंद डगाल पर
आना उसी दिन लौटकर जब गा चुकी हों वे सोहर की अंतिम पंक्तियाँ
और इतना भरपूर हो उठे छत्ता कि
मगन हों वे सौंपते अपनी रचना
मर्जी से आपकी तोड़ नहीं सकते उसे हर कभी
अभी पूरी नहीं हुई उनकी कविता
कि मक्खीपानी का समय नहीं यह।