मधुर विकास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
गगन-तल क्यों निर्मल हो गया?
नीलिमा क्यों है भरित उमंग?
लोक-मोहन क्यों इतना बना
आज दिन उसका श्यामल रंग।
सभी को कर देने को सरस
किसलिए हुआ चौगुना चाव;
वारिधार मंजु वारि कर वहन
कर गया क्यों छिति पर छिड़काव।
बहुत क्यों हरा-भरा हो गया
पहन सुंदर फूलों का ताज;
मोतियों से सजकर है खड़ा
किसलिए नाना विटप-समाज।
बिछाई किसने है किसलिए
रजत-राजित चादर कर प्यार;
वहन कर निर्मल मंजुल सलिल
क्यों हुए सरि-सर सरस अपार।
किसलिए अनुरंजित बन भूरि
विपुलता से विकसे अरविंद;
बरसते हैं क्यों सुमन-समूह,
विलसते पारिजात-तरु-वृंद।
चंद्रिका-से हो करके चारु
किया है उसने क्यों शृंगार;
पहन रजनी ने क्यों है लिया
तारकावलि हीरक का हार।
किसलिए कोने-कोने मधय
उमड़ता पड़ता है आनंद;
दिशा है मंद-मंद हँस रही
देखने को किसका मुख-चंद।
बनाता है क्यों भू को भव्य
कौन-सा भव का भाव-विलास;
क्यों कहें, है किसका सर्वस्व
सित शरद का कमनीय विकास।
वर्षाकालिक सांध्य गगन
संध्या काल विरल घनावृत गगन
जहाँ-तहाँ पुंजीभूत अंजन अपार;
तिरोभूत विंदुपात मंदीभूत वायु,
हो चुका था बंद वृष्टि अवारित द्वार।
अस्तप्राय दिनमणि मंजु अंशु-जाल,
विरच रहा था बार-बार बहु चित्र;
सुषमा-सदन ले-ले छिन्नभूत घन
नाना केलि करता था बनके विचित्र।
उस काल अवलोक वारिवाह-व्यूह
सुरंजित आलोकित बहु वर्ण गात;
होता था विदित खुले विबुध विमान
नाना रूप नाना रंग नाना अवदात।
कभी होता अवगत अमर-कुमार,
उमग उड़ा रहे हैं विविध पतंग।
अथवा विशाल व्योम वारिनिधि-मधय
विलस रही है बहु उत्ताल तरंग।
सोचता कभी था चित् सुखाने के लिए
फैलाए गये हैं लोक-सुंदरी के पट;
किंवा हुए प्रदर्शित प्रमोद सदन
किसी चित्रकार के प्रचुर चित्रपट।
ऐसे हैं प्रतीत होते, मोहते हैं मन
घन के किनारे हो-हो किरण-कलित;
मानो सारी प्रकृति-वधूटी की असित
लैस के लगाए बनी बड़ी ही ललित।
कभी बहुरंजित विरच इंद्र-धनु
घन को पिन्हाती रत्न-खचित मुकुट;
किरण सँवारती दिगंगना-वसन
कभी दे-दे सप्तरंग द्वारा दिव्य पुट।
पा के उसे बनता था पुरहूत-चाप
स्वर्ग-द्वार-विलसित सुबंदनवार;
रंगिणी कादंबिनी सुलालित सुअन
लोक-कमनीयता-कामिनी का शृंगार।
पश्चिम दिशा में दिव्य दीर्घकाल घन
हो-होकर कनकाभ-किरण-कलित
बनता था प्रज्वलित पावक-समान
किंवा किसी स्वर्गिक विभूति से वलित।
उसे अवलोक यह होता था विचार,
हुई है प्रतीची जात रूप से जटित;
अथवा कनक-मेरु कांततम बन
हुआ है क्षितिज मंजुता में प्रकटित।
अंत हुए दिवस चिता की जगी आग,
किंवा हुआ एकत्रिात विद्युत-विकास;
तमोमयी रजनी समागत विलोक
किंवा केंद्रीभूत बना परम प्रकाश।
अंकगत दिवामणि अस्त अवलोक
प्रतीची-हृदय ज्वाला हुई प्रस्फुटित;
अथवा सहसाकर-सहाय-निमित्त
दिवलोक दिव्य आभा हुई संघटित।
अथवा है यह वह आलोक-भंडार,
आलोकित जिससे है मेदिनी का अंक;
पाके जिसे द्युतिमान बने हैं खद्योत,
जिसकी विभा से विभावान है मयंक।
काले घन-दनुजात-दहन-निमित्त
रवि न चलाए हैं अमित अग्नि-बाण;
अथवा त्रिदश समवेत तेज:पुंज
करता है व्योम रमणीय मणि त्राण।
रमा का है रत्न-कांत कनक-भवन,
किंवा है दमकता प्रकृति-भव्य-भाल;
विकसा गगन-सर में है स्वर्ण-पद्म,
किंवा किसी ज्वालामुखी की है ज्वाल-माल।