मनोहर छटा / रामचंद्र शुक्ल
नीचे पर्वत थली रम्य रसिकन मन मोहत।
ऊपर निर्मल चन्द्र नवल आभायुत सोहत।।
कबहुँ दृष्टि सों दुरत छिपत मेघन के आडें।
अन्धकार अधिकार तुरत निज आय पसारे।।
नवल चंद्रिका छिटकि फेरि सब बनहिं प्रकाशत।
निर्मल द्युति फैल्या बेगि तमपुंज बिनासत।।
प्रकृति चित्र की छटा होत परिवर्तित ऐसी।
चित्रकार की अजब अनोखी गति हैं जैसी।।
भई प्रकृति हैं मौन पौन हू सोवन लागी।
पशु पक्षी हू मनहुँ दियो यहि जग कहँ त्यागी।।
केवल कहुँ कहुँ झींगुर अरु झिल्ली झनकारत।
जलप्रपात रव मन्द मधुर झरनन कर आवत।।
कतहुँ श्याम रँग शिला कहूँ थल कहुँ हरियाली।
बहत मंद परवाह युक्त झरना छबिशाली।।
कहुँ विकराल विशाल शिला आड़त तेहि वेगहिं।
उमगि उच्छलित होय तऊ धावत गहि टेकहिं।।
जाय मिलत निज प्रिय सरिता सों कोटि यतन करि।
प्रेमिन के पथरोधन को दरसावत दुस्तर।।
राजत कतहूँ झाड़िन की अवली तट ऊपर।
कतहुँ खडे दो चार जंगली वृक्ष मनोहर।।
तिन सब कर प्रतिबिंब भाँति जल माँहि लखाई।
देखन हित निज रूप प्रकृति दर्पन ढिग आई।।
तरु मंडप के रंध्रन बिच सों छनि छनि आवत।
शशि किरनन को पुंज सरस शोभा सर सावत।।
करत अलौकिक नृत्य आय निर्मल जल माहीं।
निरखि ताहि मन मुग्ध होय थिर रहत तहाँ हीं।।
पहुँच दृष्टि की जात जहाँ तक दीसत याही।
शैल नदी तरु भूमि अटपटी और कछु नाहीं।।
निरखि लेहु एक बेर चहूँ दिशि नैन पसारी।
मन महँ अंकित करहु माधुरी छवि अति प्यारी।।
इतहीं चिंता तजत आय जग के नर नारी।
इतहीं अनुभव करत सुख सब दु:ख बिसारी।।
इतही प्रेम पियास बुझत प्रेमी गण की अति।
आय मिलत जब प्रेम प्रेयसी मंद मधुर गति।।
('सरस्वती', अक्टूबर, 1901)