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मन करता है मैं रूठूँ / कमलेश द्विवेदी

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मन करता है मैं रूठूँ वह आये मुझे मनाये।
लेकिन वह इतना अच्छा है कैसे रूठा जाये।

जो कुछ उससे कहना चाहूँ
बिना कहे सुन लेता।
जो करवाना चाहूँ उससे
बिना कहे कर देता।
ऐसे में बोलो फिर कैसे उस पर गुस्सा आये।
मन करता है मैं रूठूँ वह आये मुझे मनाये।

चाहे जितना अलग-अलग हों
चाहे हम बेगाने।
उसके दिल की मैं सब जानूँ
मेरी वह सब जाने।
फिर नाराज़ किसी से कैसे कोई भी हो पाये।
मन करता है मैं रूठूँ वह आये मुझे मनाये।

सोच रहा हूँ ऐसे रिश्ते
क्या यों ही मिल जाते।
कितने सगे, सगे होकर भी
चोट हमें पहुँचाते।
पर जो दिल से जुड़े, धड़कनों तक वह साथ निभाये।
मन करता है मैं रूठूँ वह आये मुझे मनाये।