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मन में छलकी छवि न तिहारी / स्वामी सनातनदेव
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राग कलावती, तीन ताल
मन में छल की छवि न तिहारी।
कहा कहों हौं दरस-परस की सपनेहुँ नैंकु न झलक निहारी।
ऐसी कहा परो हठ प्यारे! तरसत ही बीती वय सारी।
तुम बिनु और न चहों कबहुँ कछु, फिर क्यों निठुर भये गिरिधारी॥1॥
तुव पद-रति ही है मति मेरी, दूजी बात न कबहुँ विचारी।
तोहूँ तुम यों तरसावत हो, कैसी उलटी चाल तिहारी॥2॥
तरसहिं नैन रैन-दिन मोहन! मनहूँ पल-पल होत दुखारी।
जीवन की संध्या नियराई, तदपि न पूजी आस हमारी॥3॥
कबलों यों तरसावहुगे प्रिय! तुम यह कहा नीति निरधारी।
अपनेकों अपनावन ही क्यों भयो बीर! तुमकों यों भारी॥4॥
कहि-कहि हूँ का होत प्रानधन! जानत हो जिय की तुम सारी।
अब जो तुमहिं सुहाय करहु सो, मेरे तो तुम ही बनवारी!॥5॥