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मन से अपने पूछ लो / प्रभात पटेल पथिक

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 'मन' से अपने पूछ लो 'मन' मुकर जाते हैं अधिकतर!
काँच-सम मधु-स्वप्न सारे, बिखर जाते हैं अधिकतर।

प्रेम का उद्गम सरल है, किंतु पथ हैं बहुत दुर्गम।
कंटको से भरे इस मग में चलन अतिशय कठिन है!
हो गया इक बार यदि तो, निकल पाओगी न बाहर,
आगमन अतिशय सरल है, निर्गमन अतिशय कठिन है!
सोच लो, अतिशीघ्रता में बिगड़ जाते हैं अधिकतर।
मन से अपने ।

प्रेम के जितने हैं मानक-बिम्ब उनको पढ़ चुकी हो?
या कि बिन तैयारी के ही दे रही हो यह परीक्षा!
अभी पढ़ लो मन लगाकर, बाद में हमसे न कहना-
महल में गौतमप्रिया ने, पढ़ो! की कब तक प्रतीक्षा!
सोच कर ये उद्धरण, मन सिहर जाते हैं अधिकतर!
मन से अपने ।

प्रेम करना है करो हमको कोई बाधा नहीं हैं!
प्रेम करने से किसी को हम कभी न रोक सकते!
किंतु जिसको एक दिन का भी नहीं अनुभव हो उसको-
हम विरह की अग्नि में सीधे कभी न झोंक सकते!
कामनाएँ है हमारी, पग बढ़ाओ, किंतु साथी-
ध्यान हो! नवचरण, सीधी डगर जाते हैं अधिकतर!
मन से अपने ।