ममता / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
ममता ढरै छौं तोरा आँखी सें, मती हेरोॅ,
मती हेरोॅ एन्होॅ आँखी सें मती हेरोॅ!
हेरतें फाटै छै हिया, थिर नाही रहे जिया,
हहरि उठै छै कोनो वॉेव, दोनों छाती सें!
तेल बिनू सुखा केश माय तोरोॅ है की भेस!
जिनगी बोलै छौं अकुलाय नुंगा-टाँकी सें।
अमृत झरै छौ तोरा बोली सें मती बोलें;
मती बोलें एन्होॅ बोली सें मती बोलें!
सहलो नी जाय मान, फफकी उठै छै प्राण
गुदरी में बान्हलोॅ ई जिनगी के पोटरी केॅ मती खोलें;
मती खोलें एन्होॅ बोली सें मती खोलें।
उघरी उठै छै काल, घुरी-फुरी कत्तेॅ साल
एक्खै बेरीं आबै छै बबाल लेने घोली सें, मती बोलें
देखलो नी जाय माय, फाटलोॅ तोरोॅ बेमाय,
सेंकै लेॅ चाही छीं रास उठाय दीया-बाती सें!
नुनु तोरोॅ हाथ लरम, आरो दीया-रास गरम,
झरको नी जोॅव कुम्हलाय अनचिन लेली, मती बोलें।
लागै छै हमरा माय! अनचिन कोय नी आय
एक्के बुन्द गेले छिरियाय भाँती-भाँती सें!
मती हेरोॅ...
दरकी गेलै छै हिया, धरती के कत्तेॅ ठीयाँ
हम्हीं नै एक्के छीं एन्होॅ दीन सौंसे घोली में!
घुरी-फुरी देखें देश, मिली जैतौ कत्तेॅ भेस
झलकि उठतौ सौंसे देश एक्खै खोली में।
देखी लेलाँ सौंसे देश, देखी-देखी तोरोॅ भेस
खुली गेलोॅ आँख पाबी जोत तोरा आँखी सें
फेरु हेरोॅ;
फेरु हेरोॅ ओन्हें आँखी सें फेरु हेरोॅ!
फेरु बोलें;
फेरु बोलें ओंन्हे बोली सें, फेरु बोलें!
फेरु हेरोॅ...
फेरु बोलें...