भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मलकाठ पर मान / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर घर के बांधव को डर है, अपने बांधव से ही
जो संबंध निभाते आए, पुरखे नहीं बचे हैं,
एक व्यूह के भीतर कितने सौ-सौ व्यूह रचे हैं
परपट बनी डीह पर मंैने रोते देखा, नेही ।

टूट-टूट कर बिखर गये हैं रिश्तों के सब धागे
पत्नी को शंका है पति पर, पति को है पत्नी पर
उग आया चपड़े का जंगल, जहाँ खड़ा था पीपर
घर में कुलदेवी का घर ही अब मशान-सा जागे ।

रीति-रिवाजें ढनमन-ढनमन, मलकाठों पर मान
अपने, अपने से अनपरिचित बकरी-बाघ बने हैं
क्या होगा अब, मठ-मंदिर तक ऐसे रक्त सने हैं
पंचायत के पंच मौन हैं, गायब हैं भगवान ।

सबके हाथों में चाँदी के चमचे हैं; मन लोहा
मुक्त छन्द की आपाधापी; रोए-सिसके दोहा ।