मलिक मोहम्मद जायसी / परिचय
जायसी भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि है। वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे।
विषय सूची
जन्म व प्रारंभिक जीवन
जायसी का जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। यह भी इस बात को सूचित करता है कि वे जायस नगर के निवासी थे। इस संबंध में उनका स्वयं भी कहना है, जायस नगर मोर अस्थानू।
नगरक नांव आदि उदयानू।
तहां देवस दस पहुने आएऊं।
भा वैराग बहुत सुख पाएऊं।। (आखिरी कलाम 10)।
इससे यह पता चलता है कि उस नगर का प्राचीन नाम उदयान था, वहां वे एक पहुने जैसे दस दिनों के लिए आए थे, अर्थात उन्होंने अपना नश्वर जीवन प्रारंभ किया था अथवा जन्म लिया था और फिर वैराग्य हो जाने पर वहां उन्हें बहुत सुख मिला था। जायस नाम का एक नगर उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में आज भी वर्तमान है, जिसका एक पुराना नाम उद्याननगर 'उद्यानगर या उज्जालिक नगर' बतलाया जाता है तथा उसके कंचाना खुर्द नामक मुहल्ले में मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म-स्थान होना भी कहा जाता है। कुछ लोगों की धारणा कि जायसी की किसी उपलब्ध रचना के अंतर्गत उसकी निश्चित जन्म-तिथि अथवा जन्म-संवत का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं पाया जाता। एक स्थल पर वे कहते हैं,
भा अवतार मोर नौ सदी।
तीस बरिख ऊपर कवि बदी (आखिरी कलाम 4)।
जिसके आधार पर केवल इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि उनका जन्म संभवतः 800 हि एवं 900 हि. के मध्य, अर्थात सन 1397 ई और 1494 ई के बीच किसी समय हुआ होगा तथा तीस वर्ष की अवस्था पा चुकने पर उन्होंने काव्य-रचना का प्रारंभ किया होगा। पद्मावत का रचनाकाल उन्होंने 947 हि (सन नौ से सैंतालीस अहै- पद्मावत 24)। अर्थात 1540 ई बतलाया है। पद्मावत के अंतिम अंश(653) के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उसे लिखते समय तक वे वृद्ध हो चुके थे।
उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और कहा जाता है कि वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। जायसी ने अपनी कुछ रचनाओं में अपनी गुरु-परंपरा का भी उल्लेख किया है। उनका कहना है, सैयद अशरफ़, जो एक प्रिय संत थे मेरे लिए उज्ज्वल पंथ के प्रदर्शक बने और उन्होंने प्रेम का दीपक जलाकर मेरा हृदय निर्मल कर दिया।
इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि अमेठी नरेश इनके संरक्षक थे।
कृतियाँ
उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसमें पद्मावती की प्रेम कथा का रोचक वर्णन हुआ है। रत्नसेन की पहली पत्नी नागमती के वियोग का अनूठा वर्णन है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।
उनका देहांत १५५८ में हुआ।
अखरावट जायसी कृत एक सिद्धांत प्रधान ग्रंथ है। इस काव्य में कुल ५४ दोहे ५४ सोरठे और ३१७ अर्द्धलिया हैं। इसमें दोहा, चौपाई और सोरठा छंदों का प्रयोग हुआ है। एक दोहा पुनः एक सोरठा और पुनः ७ अर्द्धलियों के क्रम का निर्वाह अंत तक किया गया है। अखरावट में मूलतः चेला गुरु संवाद को स्थान दिया गया है।
जायसी प्रमुख रचनाओं का संक्षिप्त परिचय
अखरावट का रचनाकाल
अखरावट के विषय में जायसी ने इसके काल का वर्णन कहीं नहीं किया है। सैय्यद कल्ब मुस्तफा के अनुसार यह जायसी की अंतिम रचना है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अखरावट पद्मावत के बाद लिखी गई होगी, क्योंकि जायसी के अंतिम दिनों में उनकी भाषा ज्यादा सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित हो गई थी, इस रचना की भाषा ज्यादा व्यवस्थित है। इसी में जायसी ने अपनी वैयक्तिक भावनाओं का स्पष्टीकरण किया है। इससे भी यही साबित होता है, क्योंकि कवि प्रायः अपनी व्यक्तित्व भावनाओं स्पष्टीकरण अंतिम में ही करता है।
मनेर शरीफ से प्राप्त पद्मावत के साथ अखरखट की कई हस्तलिखित प्रतियों में इसका रचना काल दिया है। "अखरावट' की हस्तलिखित प्रति पुष्पिका में जुम्मा ८ जुल्काद ९११ हिजरी का उल्लेख मिलता है। इससे अखरावट का रचनाकाल ९११ हिजरी या उसके आस पास प्रमाणित होता है।
अखरावट का कथावस्तु
सृष्टि
१.अखरावट के आरंभ में जायसी ने इस्लामिक धर्मग्रंथों और विश्वासों के आधार पर आधारित सृष्टि के उद्भव तथा विकास की कथा लिखी है। उनके इस कथा के अनुसार सृष्टि के आदि में महाशुन्य था, उसी शुन्य से ईश्वर ने सृष्टि की रचना की गई हे। उस समय गगन, धरती, सूर्य, चंद्र जैसी कोई भी चीज मौजूद नहीं थी। ऐसे शुन्य अंधकार में सबसे पहले पैगम्बर मुहम्मद की ज्योति उत्पन्न की --
गगन हुता नहिं महि दुती, हुते चंद्र नहिं सूर
ऐसइ अंधकूप महं स्पत मुहम्मद नूर।।
कुरान शरीफ एवं इस्लामी रवायतों में यह कहा जाता है कि जब कुछ नहीं था, तो केवल अल्लाह था। प्रत्येक जगह घोर अंधकार था। भारतीय साहित्य में भी इस संसार की कल्पना "अश्वत्थ' रुप में की गई है।
सातवां सोम कपार महं कहा जो दसवं दुवार।
जो वह पवंकिंर उधारै, सो बड़ सिद्ध अपार।।
इस पंक्तियों में जायसी ने मनुष्य शरीर के परे, गुद्येन्द्रिय, नाभि, स्तन, कंठ, भौंहों के बीच के स्थान और कपाल प्रदेशों में क्रमशः शनि, वृहस्पिति, मंगल, आदित्य, शुक्र, बुध और सोम की स्थिति का निरोपण किया है। ब्रह्म अपने व्यापक रुप में मानव देह में भी समाया हुआ है --
माथ सरग घर धरती भयऊ।
मिलि तिन्ह जग दूसर होई गयऊ।।
माटी मांसु रकत या नीरु।
नसे नदी, हिय समुद्र गंभीरु।।
इस्लामी धर्म के तीर्थ आदि का भी कवि ने शरीर में ही प्रदर्शित किया है --
सातौं दीप, नवौ खंड आठो दिशा जो आहिं।
जो ब्राह्मड सो पिंड है हेरत अंत न जाहिं।।
अगि, बाड, धुरि, चारि मरइ भांड़ा गठा।
आपु रहा भरि पूरि, मुहमद आपुहिं आपु महं।।
कवि के अनुसार शरीर को ही जग मानना चाहिए। धरती और आकाश इसी में उपस्थित है। मस्तक, मक्का तथा हृदय मदीना है, जिसमें नवी या पैगम्बर का नाम सदा रहता है। इसी प्रकार अन्य वस्तुओं को भी इसी प्रकार निर्देशित किया गया --
नाकि कंवल तर नारद लिए पांच कोतवार।
नवो दुवारि फिरै निति दसई कारखवार।।
अर्थात्, नाभि कमल के पास कोतवाल के रुप में शैतान का पहरा है।
जीव ब्रह्मा
मलिक मुहम्मद जायसी के कथनानुसार ब्रह्मा से ही यह समस्त सृष्टि आपूर्ति की गयी है। उन्होंने आगे फरमाया कि जीव बीज रुप में ब्रह्मा में ही था, इसी से अठारह सहस्र जीवयोगियों की उत्पत्ति हुई है -
वै सब किछु करता किछु नाहीं। जैसे चलै मेघ परिछाही।। परगट गुपुत विचारि सो बूझा। सो तजि दूसर और न सूफा।।
जीव पहले ईश्वर में अभिन्न था। बाद में उसका बिछोह हो गया। ईश्वर का कुछ अंश घट- घट में समाया है -
सोई अंस छटे घट मेला। जो सोइ बरन- बरन होइ खेला।।
जायसी बड़ी तत्परता से कहते हैं कि संपूर्ण जगत ईश्वर की ही प्रभुता का विकास है। कवि कहता है कि मनुष्य पिंड के भीतर ही ब्रह्मा और समस्त ब्रह्माण्ड है, जब अपने भीतर ही ढूँढ़ा तो वह उसी अनंत सत्ता में विलीन हो गया --
बुंदहिं समुद्र समान, यह अचरज कासों कहों। जो हेरा सो हेरान, मुहमद आपुहि आप महं।।
इससे आगे कवि कहता है कि "जैसे दूध में घी और समुद्र में पोती की स्थिति है, वही स्थिति वह परम ज्योति की है, जो जगत भीतर- भीतर भासित हो रही है। कवि कहता है कि वस्तुतः एक ही ब्रह्म के चित अचित् दो पक्ष हुए, दोनों पक्षों के भीतर तेरी अलग सत्ता कहाँ से आई। आज के सामाजिक परिदृश्य में उनका यह प्रश्न अधिक उचित है --
एक हि ते हुए होइ, दुइ सौ राज न चलि सके। बीचतें आपुहि खोइ, मुहम्मद एकै होइ रहु।।
साधना
"प्रेम- प्रभु' की साधना ही सूफी साधना है। इसके अन्तर्गत साधक अपने भीतर बिछुड़े हुए प्रियतम के प्रति प्रेम की पीर को जगाता है। पहले जीव- ब्रह्मा एक थे। वह पुनः अपने बिछुड़े हुए प्रियतम से मिलकर अभेदता का आनंद पाना चाहता है।
हुआ तो एक ही संग, हम तुम काहे बिछुड़े। अब जिउ उठै तरंग, महमद कहा न जाईन किछु।।
कबीर की तरह जायसी भी प्रेम को अत्यंत ही महत्वपूर्ण बताते हुए कहते हैं --
परै प्रेम के झेल, पिउ सहुँ धनि मुख सो करे। जो सिर संती खेल, मुहम्मद खेल हो प्रेम रस।।
जायसी के कथनानुसार किसी सिद्धांत विशेष का यह कहना कि ईश्वर ऐसा ही है, भ्रम है --
सुनि हस्ती का नाव अंधरन रोवा धाइ के। जेइ रोवा जेइ ठांव मुहम्मद सो तेसे कहे।।
इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक मत में सत्य का कुछ- न- कुछ अंश रहता है।
जायसी भी मुहम्मद के मार्ग को श्रेष्ठ मानते हुए भी विधना के अनेक मार्गों को स्वीकार करते हैं। वह अपने लेखन में या साधना में एक सिद्धांत में बंधना नहीं चाहते हैं। जायसी अपनी उदास और सारग्रहिणी बुद्धि के फलस्वरुप योग, उपनिषद्, अद्वेतवाद, भक्ति, इस्लामी, एकेश्वरवाद आदि से बहुत कुछ सीखते हैं। वे कहते हैं कि वह सभी तत्व जो ग्राम्ह है, प्रेम की पीर जगाने में समर्थ है। ब्रह्मावाद, योग और इस्लामी- सूफी सिद्धांतों का समन्वय जायसी की अपनी विशेषता है। अखरावट में वह कहते हैं --
मा- मन मथन करै तन खीरु। हुहे सोइ जो आपु अहिरु।। पाँचों भुत आनमहि मारैं। गरग दरब करसी के जारे।।
मन माठा- सम अस के धोवै। तन खेला तेहि माहं बिलोबे।। जपहु बुद्धि के दुइ सन फरेहु। दही चूर अस हिंया अभेरहु।।
पछवां कदुई केसन्ह फेरहु। ओहि जोति महं जोति अभेरहु।। जस अन्तपट साढ़ी फूटे। निरमल होइ मयां सब टूटे।।
मखनमूल उठे लेइ जोति। समुद माहं जस उलटे कोती।। जस घिड़ होइ मराइ के, तस जिऊ निरमल होइ। महै महेरा दूरि करि, भोग कर सुख सोइ।।
अद्वेैतवाद के आधार पर ही जायसी मूल्यतः अपने अध्यात्म जगत का निर्माण किया है --
अस वह निरमल धरति अकासा। जैसे मिली फूल महं बरसा।। सबै ठांव ओस सब परकारा।
ना वह मिला, न रहै निनारा।। ओहि जोति परछाहीं, नवो खण्ड उजियार। सुरुज चाँद कै जोती, उदित अहै संसार।।
अखरावट में जायसी ने उदारतापूर्वक इस्लामी भावनाओं के साथ भारतीय हिंदू भावनाओं के सामंजस्य का प्रयत्न किया है। जायसी इस्लाम पर पूर्ण आस्था रखते थे, किंतु उनकी यह इस्लाम भावना सुफी मत की नवीन व्यवस्थाओं से संबंधित है। उनका इस्लाम योगमत योगाचार- विधानों से मण्डित है और हिंदू- मुस्लिम दोनों एक ब्रह्मा की संतान हैं, की भावना से अलंकृत है। ब्रह्मा विष्णु और महेश के उल्लेख "प्रसंग वश' "अल्लिफ एक अल्लाह बड़ मोइ' केवल एक स्थान पर अल्लाह का नामोल्लेख, कुरान के लिए कुरान और पुराण के नामोल्लेख, स्वर्ग या बिहिश्त के लिए सर्वत्र कैलाश या कविलास के प्रयोग अहं ब्राह्मास्मि या अनलहक के लिए सांह का प्रयोग, इब्लीस या शैतान के स्थान पर "नारद' का उल्लेख योग साधना के विविध वर्णन प्रभृति बातें इस बात की ओर इंगित करती है कि जायसी हिंदू- मुस्लिम भावनाओं में एकत्व को दृष्टि में रखते हुए समन्वय एवं सामंजस्य का प्रयत्न करते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी ने हिंदू- मुस्लिम की एकता के विषय में अत्यंत नम्रंतापूर्वक कहा --
तिन्ह संतति उपराजा भांतिन्ह भांति कुलीन। हिंदू तुरुक दुवौ भए, अपने अपने दीन।। मातु कै रक्त पिता के बिंदू। उपने दुवौ तुरुक और हिंदू।।
जायसी की यह सामंजस्य भावना उनके उदार मानवतावादी दृष्टिकोण की परिचायक है।
आखिरी कलाम
जायसी रचित महान ग्रंथ का सर्वप्रथम प्रकाशन फारसी लिपि में हुआ था। इस काव्य में जायसी ने मसनवी- शैली के अनुसार ईश्वर- स्तुति की है। अपने अवतार ग्रहण करने तथा भुकंप एवं सूर्य- ग्रहण का भी उल्लेख किया है। इस के अलावा उन्होंने मुहम्मद स्तुति, शाहतरत- बादशाह की प्रशस्ति और सैय्यद अशरफ की वंदना, जायस नगर का परिचय बड़ी सुंदरता से उल्लेख किया है। जैसा कि जायसी ने अपने काव्य अखरखट में संसार की सृष्टि के विषय में लिखा था। इस आखरी काव्य में जायसी ने आखरी कलाम नाम के अनुसार संसार के खत्म होने एवं पुनः सारे मानवों को जगाकर उसे अपना दर्शन कराने एवं जन्नत की भोग विलास के सूपुर्द करने का उल्लेख किया है।
चित्ररेखा
जायसी ने पद्मावत की ही भांति "चित्ररेखा' की शुरुआत भी संसार के सृजनकर्ता की वंदना के साथ किया है। इसमें जायसी ने सृष्टि की उद्भाव की कहानी कहते हुए करतार की प्रशंसा में बहुत कुछ लिखा है। इसके अलावा इसमें उन्होंने पैगम्बर मुहम्मद साहब और उनके चार मित्रों का वर्णन सुंदरता के साथ किया है। इस प्रशंसा के बाद जायसी ने इस काव्य की असल कथा आरंभ किया है।
इसकी कथा चंद्रपुर नामक एक अत्यंत सुंदर नगर के राजा, जिनका नाम चंद्रभानु था, की कथा प्रारंभ किया है। इसमें राजा चंद्र भानु की चाँद के समान अवतरित हुई पुत्री चित्ररेखा की सुंदरता एवं उसकी शादी को इस प्रकार बयान किया है --
चंद्रपुर की राजमंदिरों में ७०० रानियाँ थी। उनमें रुपरेखा अधिक लावण्यमयी थी। उसके गर्भ से बालिका का जन्म हुआ। ज्योतिष और गणक ने उसका नाम चित्ररेखा रखा तथा कहा कि इसका जन्म चंद्रपुर में हुआ है, किंतु यह कन्नौज की रानी बनेगी। धीरे- धीरे वह चाँद की कली के समान बढ़ती ही गयी। जब वह स्यानी हो गयी, तो राजा चंद्रभानु ने वर खोजने के लिए अपने दूत भेजे। वे ढ़ूंढ़ते- ढ़ूंढ़ते सिंहद देश के राजा सिंघनदेव के यहाँ पहुँचे और उसके कुबड़े बेटे से संबंध तय कर दिया।
कन्नौज के राजा कल्याणसिंह के पास अपार दौलत, जन व पदाति, हस्ति आदि सेनाएँ थी। तमाम संपन्नता के बावजूद उसके पास एक पुत्र नहीं था। घोर तपस्या एवं तप के पश्चात उनकी एक राजकुमार पैदा हुआ, जिसका नाम प्रितम कुँवर रखा गया। ज्योतिषियों ने कहा कि यह भाग्यवान अल्पायु है। इसकी आयू केवल बीस वर्ष की है। जब उसे पता चला कि उसकी उम्र सिर्फ ढ़ाई दिन ही रह गई है, तो उन्होंने पुरा राजपाट छोड़ दिया और काशी में अंत गति लेने के लिए चल पड़ा।
रास्ते में राजकुमार को राजा सिंघलदेव से भेंट हो गयी। राजा सिंघलदेव ने राजकुमार प्रीतम कुँवर के पैर पकड़ लिए। उसकी पुरी और नाम पूछा तथा विनती की, कि हम इस नगर में ब्याहने आए हैं। हमारा वर कुबड़ा है, तुम आज रात ब्याह कराकर चले जाना और इस प्रकार चित्ररेखा का ब्याह, प्रीतम सिंह से हो जाता है। प्रीतम सिंह को व्यास के कहने से नया जीवन मिलता है।
चित्ररेखा में प्रेम की सर्वोच्चयता :
जायसी प्रेम पंथ के महान साधक- संत थे। प्रेम पंथ में उन्होंने प्रेम पीर की महत्ता का प्रतिपादन किया है। व्यर्थ की तपस्या काम- क्लेश एवं बाह्माडम्बर को वह महत्वहीन मानते थे :-
का भा पागट क्या पखारे। का भा भगति भुइं सिर मारें।। का भा जटा भभूत चढ़ाए। का भा गेरु कापरि जाए।।
का भा भेस दिगम्बर छांटे। का भा आयु उलटि गए कांटे।। जो भेखहि तजि तु गहा। ना बग रहें भगत व चहा।।
पानिहिं रहइं मंछि औदादुर। टागे नितहिं रहहिं फुनि गादुर।। पसु पंछी नांगे सब खरे। भसम कुम्हार रहइं नित भरे।।
बर पीपर सिर जटा न थोरे। अइस भेस की पावसि भोऐ।। जब लगि विरह न होइ तन हिये न उपजइ प्रेम। तब लगि हाथ न आव पत- काम- धरम- सत नेम।।
जायसी अपने समय के कृच्छ- काय- क्लेश और नाना विध बाह्माडम्बर को साक्ष्य करते हुए कहते हैं कि प्रकट भाव से काया प्रक्षालन से कोई फायदा नहीं हो सकता है। धरती पर सिंर पटकने वाली साधना व्यर्थ है। जटा और भभुत बढ़ाने चढ़ाने का कोइ मूल्य नहीं है। गैरिक वसन धारण करने से कुछ नहीं होता है। दिगम्बर योगियों का सा रहना भी बेकार हे। काँटे पर उत्तान सोना और साधक होने का स्वांग भरना निष्प्रयोजन है। देश त्याग का मौन व्रती होना भी व्यर्थ है। इस प्रकार के योगी की तुलना वर बगुला और चमगादड़ से करते हैं। वे कहते हैं केश- वेश से ईश्वर कदापि नहीं मिलता है। जब वह विरह नहीं होता, हृदय में प्रेम की निष्पति नहीं हो सकती है। बिना प्रेम के तप, कर्म, धर्म और सतनेम की सच्चे अर्थों में प्राप्ति नहीं हो सकती है। जायसी सहजप्रेम विरह की साधना को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।
कहरानामा
कहरानामा का रचना काल ९४७ हिजरी बताया गया है। यह काव्य ग्रंथ कहरवा या कहार गीत उत्तर प्रदेश की एक लोक- गीत पर आधारित में कवि ने कहरानाम के द्वारा संसार से डोली जाने की बात की है।
या भिनुसारा चलै कहारा होतहि पाछिल पहारे। सबद सुनावा सखियन्ह माना, हंस के बोला मारा रे।।
जायसी ने हिंदी में कहारा लोक धुनि के आधार पर इस ग्रंथ की रचना करके स्वयं को गाँव के लोक जीवन एवं सामाजिक सौहार्द बनाने का प्रयत्न किया है। कहरानामा में कहरा का अर्थ कहर, कष्ट, दुख या कहा और गीत विशेष है। हमारे देश भारत ब्रह्मा का गुणगान करना, आत्मा और परमात्मा के प्रेम परक गीत गाना की अत्यंत प्राचीन लोक परंपरा है।
कहरानामा की कथ
"कहरानामा' तीस पदों की एक प्रेम कथा है। इस कथानुमा काव्य में लेखक जायसी के कथानुसार संसार एक सागर के समान है। इसमें धर्म की नौका पड़ी हुई है। इस नौका का केवट एक ही है। वे कहते हैं कि कोई पंथ को तलवार की धार कहता है, तो कोई सूत कहता है। कई लोग इस सागर में तैरते हुए हार गया है और बीच में खड़ा है, कोई मध्य सागर में डूबता है और सीप ले आता है, कोई टकटोर करके छूंछे ही लौटता है, कोई हाथ- छोड़ कर पछताता है। जायसी बड़े ही अच्छे अंदाज में दुनिया की बेवफाई और संसार के लोगों की बेरुखी को जगजाहिर करते हैं--
जो नाव पर चढ़ता है, वह पार उतरता है और नख चले जाने पर, जो बांह उठाकर पुकारता है और केवट लौटता नहीं, तो वह पछताता है, ऐसे लोगों को "मुखे अनाड़ी' कहते हैं। बहुत दूर जाना है, रोने पर कौन सुनता है। जो गाँट पूरे हैं, जो दानी हैं, उनसे हाथ पकड़ कर केवट नाव पर चढ़ा लेता है, वहाँ कोई भाई, बंधु और सुंघाती नहीं। जायसी कहते हैं कि साधक को इस संसार में परे संभाल कर रखना चाहिए अन्यथा पदभ्रश होने का भय है। जायसी ने योग युक्ति, मन की चंचलता को दूर करने भोगों से दूर रहने और प्रेम प्रभु में मन रमाने की बातें कहीं हैं। इससे आगे वे कहते हैं, ईश्वर जिसे अपना सेवक समझता है, उसे वह भिखारी बना देता है।
जो सेवक आपून के जानी तेहि धरि भीख मंगावे रे। कबिता पंडित दूक्ख- दाद महं, मुरुख के राज करावै रे।।
चनदन गहां नाग हैं तहवां। जदां फूल तहां कंटा रे।। मधू जहवां है माखी तहवा, गुर जहवा तहं चांटा रे।।
केहरानामा में कहारों के जीवन और वैवाहिक वातावरण के माध्यम से कवि ने अपने अध्यात्मिक विचारों को अभिव्यक्त किया है --
या भिनुसारा चलै कंहारा, होता हि पाछिल पहरारे सखी जी गवहि हुडुक बाजाहिं हंसि के बोला मंहा रे।। हुडुक तबर को झांझ मंजीरा, बांसुरि महुआ बाज रे। सेबद सुनावा सखिन्ह गावा, घर- घर महरीं साजै रे। पुजा पानि दुलहिन आनी, चुलह भा असबारा रे।।
बागन बाजे केवट साजै या बसंत संसारा रे। मंगल चारा होइझंकारा औ संग सेन सेहली रे।
जनु फुलवारी फुलीवारी जिनकर नहिं रस केली रे।। सेंदूर ले- ले मारहिं धै- धै राति मांति सुभ डोली रे।
भा सुभ मेंसु फुला टेसू, जनहु फाग होइ होरी रे।। कहै मुहम्मद जे दिन अनंदा, सो दिन आगे आवे रे।
है आगे नग रेनि सबहि जग, दिनहि सोहाग को पखे रे।
==मसला=='
यह जायसी एक काव्य रचना है। इसके आरंभ में जायसी ने अल्लाह से मन लगाने की बात कही है --
यह तन अल्लाह मियां सो लाई। जिहि की षाई तिहि की गाई।। बुधि विद्या के कटक मो हों मन का विस्तार। जेहि घर सासु तरुणि हे, बहुअन कौन सिंगार।।
जायसी कहते हैं, अगर जीवन को निष्प्रेम भाव से जीवन- निर्वाह किया जाए, तो वह व्यर्थ है, जिस हृदय में प्रेम नहीं, वहाँ ईश्वर का वास नहीं हो सकता है। भला सुने गांव में कोई आता है--
बिना प्रेम जो जीवन निबाहा। सुने गाऊँ में आवै काहा।।
पद्मावत
जायसी हिंदी भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। उनकी रचना का महानकाव्य पद्मावत हिंदी भाषा के प्रबंध काव्यों में शब्द अर्थ और अलंकृत तीनों दृष्टियों से अनूठा काव्य है। इस कृति में श्रेष्टतम प्रबंध काव्यों के सभी गुण प्राप्त हैं। धार्मिक स्थलों की बहुलता, उदात्त लौकिक और ऐतिहासिक कथा वस्तु- भाषा की अत्यंत विलक्षण शक्ति, जीवन के गंभीर सर्वागिंण अनुभव, सशक्त दार्शनिक चिंतन आदि इसकी अनेक विशेषताएँ हैं। सचमुच पद्मावत हिंदी साहित्य का एक जगमगाता हुआ हीरा है। अवधी भाषा के इस उत्तम काव्य में मानव- जीवन के चिरंतन सत्य प्रेम- तत्व की उत्कृष्ट कल्पना है। कवि से शब्दों में इस प्रेम कथा का मर्म है। गाढ़ी प्रीति नैन जल भेई। रत्नसेन और पद्मावती दोनों के जीवन का अंतर्यामी सूत्र है। प्रेम- तत्व की दृष्टि से पद्मावत का जितना भी अध्ययन किया जाए, कम है। संसार के उत्कृष्ट महाकाव्यों में इसकी गिनती होने योग्य है। पद्मावत में सूफी और भारतीय सिद्धांतों का समन्वय का सहारा लेकर प्रेम पीर की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की गई है।
पद्मावत का रचनाकाल
मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत के रचनाकाल का उल्लेख करते हुए लिखा है :-
सन नौ से सैतांलिस अहे। कथा आरंभ बेन कवि कहै।।
इस काल में दिल्ली की गद्दी पर शेरशाह बैठ चुका था। जायसी ने शाह तत्वत के रुप में दिल्ली के सुल्तान शेरशाह के वैभव को अत्यंत वैभववंत उल्लेख किया है :-
सेरसादि दिल्ली सुल्तानू। चरिऊ खण्ड तपइ जसभानू।।
कुलश्रेष्ट जी ने ९२७ हिजरी को इस महानकाल का रचनाकाल माना है। उनका कहना था, इस समय जायसी का पद्मावत अधुरा पड़ा था, उन्होंने इसी समय पूरा किया और इसे ९३६ तक पूरा कर लिया था।
पद्मावत की लिपि
कुछ विद्वान इसे निश्चित रुप में फारसी लिपि में लिखी मानते हैं। कुछ भागराक्षरों में और कुछ विद्वान केथी अक्षरों में लिखा मानते हैं।
डा. ग्रियसन ने लिखा है कि मूलतः पद्मावत फारसी अक्षरों में लिखा गया और इसका कारण जायसी का धर्म था। हिंदी लिपि में उन्हें पीछे से लोगों ने उतारा हे।
एक विद्वान ने बताया है कि जासयी की पद्मावत नागरी अक्षरों में लिखी गई थी। इनका मत यह है कि जायसी के समय में उर्दू का नाम नहीं था और हिंदी भाषा को लिखने के लिए फारसी अक्षरों में आवश्यक विचार भी नहीं हुए थे। अतः जासयी ने अपनी रचना के लिए उर्दू लिपि का चयन कदापि नहीं किया था। इसका कारण यह है कि उस काल में ऐसे अक्षर वर्तमान नहीं थे।
एक मत यह भी है कि जायसी का उद्देश्य हिंदू जनता में सूफी मत का प्रचार करना था, इसलिए उन्होंने स्वभवतः नागरी लिपि में लिखा होगा।
उपर्युक्त विवरण से यह माना जा सकता है कि पद्मावत की रचना नागरी लिपि में हुई थी। इसी लिपि में जायसी, जनता व साधारण जनता के सामने मकबूल थे। इसलिए उन्होंने इस लिपि को अपने सूफी मत के प्रचार के लिए चुना होगा।
पद्मावत की भाषा पूरब की हिंदी है।
पद्मावत की कथा
जायसी ने कल्पना के साथ- साथ इतिहास की सहायता से अपने पद्मावत की कथा का निर्माण किया है।
भारतवर्ष के सूफी कवियों ने लोकजीवन तथा साहित्य में प्रचलित निजंधरी कथाओं के माध्यम से अपने अध्यात्मिक संदेशों को जनता तक पहुँचाने के प्रयत्न किए हैं। पद्मावती की कहानी जायसी की अपनी निजी कल्पना न होकर पहले से प्रचलित कथा के अर्थ को उन्होंने नये सिरे से स्पष्ट किया है --
सन् नरे सौ र्तृतालिस अहा।
कथा आरंभ बैन कवि कहा।।
सिंहलद्वीप पद्मिनी रानी।
रतनसेन चितउर गढ़ आनी।।
अलाउद्दीन देहली सुल्तानू।
राघव चेतन कीन्ह बखानू।।
सुना साहि गढ़ छेंकन आई।
हिंदू तुरकन्ह भई लराई।।
आदि अंत जस गाथा अहै।
लिखि भासा चौपाई कहै।।
इस पंक्तियों में जायसी स्वयं बताते हैं कि आदि से अंत तक जैसी गाथा है, उसे ही वे माखा चौपाई में निबंद्ध करके प्रस्तुत कर रहे हैं। जायसी का दावा है कि पद्मावती की कथा रसपूर्ण तथा अत्यंत प्राचीन थी --
कवि वियास कंवला रसपूरी।
दूरि सो निया नियर सो दूरी।।
नियरे दूर फूल जस कांटा।
दूरि सो नियारे जस गुरु चांटा।।
भंवर आई बन खण्ड सन लई कंवल के बास।
दादूर बास न पावई भलहि जो आछै पास।।
कवि इस पंक्ति के द्वारा बताना चाहता है कि यहाँ एक- से- एक बढ़कर कवि हुए हैं और यह कथा भी रस से भरी पड़ी है।