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मवाज़नए ज़ोरो कमज़ोरी / नज़ीर अकबराबादी

ज़ोर जब तक कि हमारे बदनो तन में रहा।
पच गई दम में, अगर कैसी ही असक़ल<ref>भारी</ref> थी दवा।
खूंदे गुलज़ारो<ref>बाग</ref> चमन<ref>बाग़</ref> गुलशनो<ref>बाग़</ref> बाग़ो सहरा<ref>जंगल</ref>।
दौड़े हर सैर तमाशे में खु़शी से हरज़ा<ref>हर जगह</ref>।
ज़ोर की खू़बियां लाखों हैं कहूं मैं क्या क्या॥1॥

ऐशो इश्रत के मजे़ जितने कि जब ज़ोर में हैं।
खु़र्रमी<ref>खु़शी</ref> खु़शदिलीयो ऐशो तरब<ref>आनन्द</ref> ज़ोर में है।
लज़्ज़ते फ़रहते<ref>खुशियां</ref> क्या कहिये अजब ज़ोर में हैं।
ज़िन्दगानी के मजे़ जितने हैं सब ज़ोर में हैं।
सच है यह बात कि है ज़ोर ही में ज़ोर मज़ा॥2॥

जब से कमज़ोर हुए तब से हुआ यह अहवाल।
सुस्तियो ज़ोफ़ो<ref>बुढ़ापा</ref> नक़ाहत<ref>कमजोरी</ref> की चढ़ाई है कमाल।
हो गये सब वह उछल कूद के नक़्शे पामाल<ref>बरबाद</ref>।
अब जो चाहें कि चलें फिर भी इसी तौर की चाल।
क़स्द<ref>इरादा</ref> करते हैं बहुत पर कहीं जाता है चला॥3॥

पानी पीते हैं तो बलग़म वह हुआ जाता है।
और दही चक्खे़ तो छींकों का मंढा छाता है।
पीवें शर्बत तो हवा ज़दगियां वह लाता है।
और जो कम खायें तो फिर जोफ़<ref>बुढ़ापा</ref> से ग़श<ref>बेहोशी</ref> आता है।
पेट भर खावें तो फिर चाहिए चूरन को टका॥4॥

राह चलने में यह कुछ जोफ़<ref>बुढ़ापा</ref> से होते हैं निढाल।
हर कदम आते हैं पा बोस को सौरंजो मलाल।
औरटुक तुंद हवा चलने लगी तो फ़िलहाल।
चलनी पड़ती है फिर उस वक़्त तो उस तौर की चाल।
जैसे कैफ़ी<ref>मतवाला, मत्त</ref> कोई चलता है बहुत पीके नशा॥5॥

ऊंची नीची जो ज़मीं आ गई रस्ते में कहीं।
उसकी यह शक्ल है क्या कहिये नक़ाहत<ref>कमज़ोरी</ref> के तई<ref>लिए</ref>।
यक बयक दोनों से गुज़रे तो यह ताक़त ही नहीं।
उतरें नीचे को तो गिर पड़ने के होते हैं क़री<ref>समीप</ref>।
और जो ऊंचे पे रक्खें पांव दम आता है चढ़ा॥6॥

आवे गर जाड़े का मौसम तो ख़राबी यह हो।
पहने नौ सेर रुई की जो बनाकर दोतो<ref>दोता, एक तरह की पोशाक</ref>।
तो भी हरगिज़ गुल<ref>गर्मी के फूल</ref> गरमी की नहीं आती बो।
हो बदन सरद कि खूं<ref>ख़ून</ref> इसमें हो ऐसा जिस को।
देखे गर बर्फ़ का थैला तो रहे सर को झुका॥7॥

और अयां<ref>प्रकट</ref> होवे जो टुक आगे हवा गरमी की।
उसमें कुछ और ही होती है नक़ाहत<ref>कमज़ोरी</ref> सुस्ती।
मोम होते हैं जहां तन को ज़रा धूप लगी।
और पसीनों में यह सूरत है बदन की होती।
जैसे ग़व्वास<ref>गोताखोर</ref> समुन्दर में लगावे गोता॥8॥

जोफ़<ref>बुढ़ापा</ref> के दाम<ref>बन्धन</ref> में हैं अब तो कुछ इस तौर असीर<ref>कैदी, बंदी</ref>।
जिसमें न ताक़ते तहरीर<ref>लिखना</ref> न ताबे तक़रीर<ref>बोलना</ref>।
ताब<ref>शक्ति</ref> अफ़्सुर्द<ref>ठिठरा हुआ, नष्ट</ref> दिल वाज़र्द<ref>सताया हुआ, पीड़ित</ref> बदन सख़्त हकीर<ref>तुच्छ, बहुत छोटा</ref>।
जो जो कमज़ोरियां करती हैं वह क्या कहिये ”नज़ीर“?।
ऐसे बेबस हैं कि कुछ दम नहीं मारा जाता॥9॥

शब्दार्थ
<references/>